तुम हमारे पीछे चल रहे थे
जैसे गठबंधन के समय
कुछ फेरे तुम्हें
पीछे रहकर पूरे करने थे
हमारी अंजुरी में
स्पर्श का अनुभव देते हुए...
पर यह क्या
तुमने रेशम के पवित्र परिणय की
पूर्णाहुति दे डाली.-
आकर्षित करे सामीप्य तेरा,स्पंदन गति बढ़ जाए.. पास मैं जब आऊँ!
नयनों के मूक निमंत्रण पा कर,बाहु-पाश में बँध जाऊँ..कुछ शरमाऊं!
सर्वस्व समर्पण कर तो दूँ ,पर सकुचाऊँ...कुछ घबराऊँ!
'परिणय' की परिणीति हुआ 'प्रणय'..हुई तेरी.. आज "इक" हो जाऊँ!!
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तुम होते तो जीवन होता,
महका महका आंगन होता.!
ताप कोई संताप न होता,
वर्षा होती सावन होता..!
शीत ऋतु ना निश्चल करती,
हर मौसम मनभावन होता..!
हृदय हृदय से करता बातें,
बंधन कितना पावन होता..!
स्वतंत्र सुगंधित परिणय होता,
दूर दूर तक मधुवन होता..!
सिद्धार्थ मिश्र
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परिणय.....बन्धन नहीं
परिणय बन्धन नहीं, प्रणय रूपी सुन्दर साज होना चाहिए, 🤝
जो करते हो वादे सात जन्मों के वो पूरे सारे आज होने चाहिए,,
जब स्वीकारते हो अर्धांगिनी उसे तो आँखों में खुद से भी ज्यादा उसके लिए सम्मान होना चाहिए,
जन्मों का साथ हो तो प्रभुत्व की कहीं भी ना दरकार होनी चाहिए,
जो छोड़ आई अपना सारा संसार तुम्हारे वास्ते,
तुम्हारे संसार पर उसका तुमसे ज्यादा अधिकार होना चाहिए,,
परिणय बन्धन नहीं ..
तुम्हारा जीवन उसके जीवन से जुड़ चुका जब,
तो तुम्हारे जीवन से जुड़े हर छोटे बड़े फैसले में उसको भी हकदार होना चाहिए...
अर्धांगिनी है अब वो तुम्हारी, तो तुम्हें भी अपने अर्धअंग पर सदैव नाज होना चाहिए,,
कभी रखे वो अपने मन की उलझने जो तुम्हारे सामने,
तो उसके हाथ पर तुम्हारा हाथ होना चाहिए..
DIVYYANSHI दुबे 💗-
प्रेम अपूर्ण हो के भी सम्पूर्णता को प्राप्त कर लेता है,
किन्तु...
परिणय सम्पूर्णता की पराकाष्ठा लिए हुए भी अपूर्ण लगता है।
आख़िर ऐसा क्यों?-
सुनो तुम कहा करती थी न,
मेरे लिए कविता लिखो न,
मै टाल दिया करता था,
अवश्य ही दुखी करता रहा होगा,
आज तुम्हें पता नहीं,
मन करता है केवल तुम पर ही लिखूँ,
तुम कहती थी ये
पढ़ने वाला निर्णय कर्ता है,
कहता था,
जब कवि या लेखक थोरि ना हूँ,
यदि रस्म रिवाज पूरे हुए,.
मैं सच में नज़र मिला नहीं पाऊँगा,
कालों के अन्त तक,
हाँ, आज की स्थिति मुझे स्वयं की,
अर्थ बता दिया है,
देवी केवल घर सजा सकती है, बस
अधिक चाहिए भी क्या,
सच बताऊँ,
कुछ ऐसा ही स्पर्श को सोचा था,
हाँ पर अब नहीं, नहीं हाँ कभी नहीं,
जानती हो क्यों,
मुझे सृष्टि में बस तुम्हारी साथ की जरूरत है,
मैं देवी को स्पर्श करना चाहता नहीं l
Gautam Kumar Singh (✍️ "सृष्टि" कृत् सच कि)
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प्रेम पत्र पर लिखे गए प्रिय के नाम कभी नही लिखा पाता परिणय पत्र पर और इसी जुस्तजू में दो आशिक़ लड़ते रहते है अपनों से एक-दूसरे के लिए, जब वो अपनों से नही जीत पाते तो हार जाते है एक दूसरे से।
फिर एक कि शादी का कार्ड पहुँचता है दूसरे के घर और भरे आँख से विदा करते एक दूसरे को। और फिर जिया करता है वो आशिक़ खामोश रह कर और इस सन्नाटों में उसकी चीख कही दब जाती है। और जो कहते थे मर जाएंगे जो बिछड़े वो जिंदा है सिर्फ पत्थर बन कर जो अब अंतर नही कर पाते ख्वाहिश और जिद में तब उन्हें अपने महबूब के बच्चों में अपने महबूब का अश्क़ दिखता है जो पत्थर बन बैठे थे वो अब बन जाते है मिट्टी कुम्हार की जिन्हें रूप वो बच्चा देता है और वो आशिक़ ढूंढ लेता है उसमें अपनी खुशियाँ.........-