कृति Singh   (✍️ कृति सच कि)
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Joined 19 August 2019


Joined 19 August 2019
24 AUG 2020 AT 7:48

तन्मय सविनय प्रात वंदन
की हर लफ्ज़ हर शब्द से
लेकर संध्या आराधना तक
पावन मानस अखंडित हस्त,
दीप में एक आशान्वित नव आभा की
स्वर्णिम प्रतीक्षा में मेरा दिवस
व्यतीतन है, हाँ! मेरे प्रतीक्षा तप में,
जलती अग्नि मेरे निश्चल कर्म की
अबतक पावन साक्षी न हुई है!
😭
💞
🙏
जब स्वयं तुम देवी हो, मैं दैवीय
प्रेम को नहीं जानना चाहता हूँ,
बस इतना ज्ञात है कि तुम शाश्वत
श्री रूप हो मेरे लिए, आना तुम
कभी हृदय सृष्टि में उतरना,
मानस दीपक सम, आभास होगा
देवी तुम्हें! मेरे प्रेम लौ स्तुति कि प्रेम पुंज l
- Gautam Kumar Singh (✍️ "सृष्टि" कृत् सच कि)


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24 AUG 2020 AT 6:00




प्रेम अबाध निश्चल जल धार
है जो बाधा को पार कर लेता है,
प्रेम किसी तीखे या मीठे,
जाल में फंस जाने वाले
मीन तो नहीं,
💞😭🙏
प्रेम पंकज स्वरूप है स्वेत,
पर इसमे पंक् का अस्तित्व नहीं,
वास्तविक या शाब्दिक मिथ्या या
सत्य का अनुचित धारना उच्चारण,
से केवल व् केवल हृदय पर आघात होता है
जिसका निश्चल प्रेम में कोई अस्तित्व नहीं l



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23 AUG 2020 AT 23:17

मेरे प्रेम को छलावा का नाम न दो,
स्वार्थ की अग्नि मे
मुझे मत झोंकों,
मैने लफ्ज़ मांगा
भोग नहीं मांगा,..
देवी मै मूढ़ न जानूँ,
प्रेम को,
:
💞
😭
:
पर मै, पत्थर मुरत नहीं, इस तरह
पीक दान न मुझे बनाओ,
ईश्वर के लिए, मुझे देखो,
सोच लो, रोक लो,
मेरे हृदय दम तोड़ दे
उससे पहले तूलिका
हाँ रोक लो l

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23 AUG 2020 AT 4:26

तुम ये जो रोज - रोज,
कविता लिखती हो,
पता नहीं राधिके मुझे,
मेरे लिए प्रेम,या प्रेरणा
या नसीहत लिखती हो l
✍️
❤️
.....................
✍️
❤️
मुझे आपकी प्रत्येक कृति में,
मेरा पूर्व जैसा कृष्ण,
संबोध ही दिखता है,
मेरा झूठा मानना ही सही,
कम से कम मुझे तस्कीन मिलता है,

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23 AUG 2020 AT 3:01

अरे सुनो,
तुम जानती हो, तुम्हें याद नहीं होगा, वो दिन एक सुशोभित मंच पर मिले थे,.
समय के डोर पकड़ बातो ही बातों में मधुर बेला में मैंने प्रेम हेतु पुष्प थमा दिया था,
मुझे तुममे दैवीय सात्विक रूप दिखा था जो आज भी है,
बशर्ते मेरा समस्त स्वरूप बिगड़ चुका है अरे नहीं देवी ये कल भी वही था, हाँ ये सही कहूँगा सारे मेरे बताए एक एक बात जो मैंने सत्यता की पुष्टि दे बताया सत्य से ज्यादा नहीं था, एक दम तुला के सम काँटा पर आधारित,
आज भी वही हूँ, पर मैंने तुम्हारे लिए निश्चल जिद डोर थाम लिया था, और एक स्मृति संजो लिया था पर मैंने कभी स्मृति मध्य अनुचित सोच आज तक नहीं रखा, न होंगे,
मैंने तुम पर हक से ज्यादा तक भय में था,
देवी मैंने कभी तुम्हारे सात्विक चरित पर उंगली नहीं उठाया,
कभी अनुचित सिद्धि को नहीं सोचा, यदि ऐसा करूँ कर्म के पथ पर एक इंसानी जीवन को किस पुरुषार्थ में बन्द करूँगा ये तुमसे दूरी आज जीने न दे रहा कल ये क्षोभ जीने देगा,स्व जननी सौगंध ये मुझसे कभी न होगा, क्योंकि आप मेरे होने से पहले किसी घर की देवी हो लक्ष्मी हो सम्मान हो, यदि मेरे घर के लक्ष्मी के साथ हो किस आडंबर में गुजरना होगा, इसका असर अनुमान है
तुमसे अधिक मेरे सोच में नहीं, और देवी न होगा,
ये प्रण में बँधा निम्न ही पर पुरुष वचन है,
हो सके तो मेरे जीवन के अंत क्षण जो करीब है आना मेरे पावन प्रेम के निब पर मेरा संबोधन लिए

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23 AUG 2020 AT 1:54

लिख न सकूँगा ज्यादा मै,
मेरे जीवन की क़लम मौन होने को है,
मैंने कोई गुनाह किया था पश्च जन्म में,
इस जन्म में कोई नाम नहीं कर पाया,
दुखी है अब भी जगत सारे,
माफ करना जहाँ वालों मेरे पैर अब आधा श्मशान में है,
मैंने किसी नारी को माँ से अधिक सम नहीं जाना,
मैंने कन्या को बहन संबोध नहीं दिया हो, सम्मान सम दिया,
प्रेम इस जगत में एक से किया देवी से अधिक नहीं जाना,
मै तमाम दोष का भंडार हूँ यदि मेरे द्वारा चरित उंगली उठा हो देवियों पर,
सर पर मेरे एक लात रख देना और तन पर रख,
मुझे धकेल देना संतोष के सीमा में जहाँ से मेरा आना संभव न हो,
मै श्मशान के करीब हूँ अतः हाथ जला कर ही अब ईश्वर से हिसाब पूछ लेता हूँ,
अब खुद को मैं यातना दे अपनी अर्थ पूछता हूँ,
नहीं लिख सकता वाह वाही खुद का जाने से पहले सरेआम होना चाहता हूँ,
सच कहूँ मै थक अब जीवन से बहुत दूर अंत को जाना चाहता हूँ
एक दिन याद रहे जगत को की मै क्या चाहता था,
तमाम दोष गुण गिन सृष्टि में भय, विश्वाश, सतर्कता प्रेम, शत्रुता, नसीहत रख जाना चाहता हूँ l

Gautam Kumar Singh (✍️ "सृष्टि"


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17 AUG 2020 AT 22:01

सही सिद्धि क्षमा अनुनय प्रयास रुदन में तोड़ देता है मन को,
देर हो जाते है कभी कभी सही गलत समझने में,

थक जाते है जीवन अंत निर्णय लेते है स्व त्याग देने को,
आते है लौट सब विलंब हो गए होते है बचाने में,

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17 AUG 2020 AT 21:57

कौन नहीं चाहता खुशियो में जीना,
कभी कभी मुश्किल होता है समझना,
जीवन में किस मोड़ पर थे,
क्या सोचकर चले क्या दौड़ थे,

क्या समझ रखा किस रुख पर,
हवा की झोंका बदल दिया कर,
समझ ही नहीं पाते स्वयं को,
गलत सोचे नहीं थे खुद से करने को,

सोच में नहीं थे कुछ गलत की गलती हो गए,
ना जाने निश्चल अन्तर पर कैसी मौसम आई,
सब बदल गए,
अब बस मुझमे बंजर धरा है,
गगन की ओर अनुनय करता है,

ओस तो रोज बरसते है मुझमे,
कभी उपवन नहीं खिले मुझमे,
तंग होकर अब स्वंय से, मन रो रहा है l
प्राण अब जीवन से साँस छोड़ रहा है,




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17 AUG 2020 AT 18:50

"मैं पुरुष अभागा मुझे प्रेम न करना"




( कृपया अनुशीर्षक में पढ़े l)


Gautam Kumar Singh

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17 AUG 2020 AT 14:38

"पुरुष है तू इठलाता"



( कृपया अनुशीर्षक में पढ़े)

Gautam Kumar Singh

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