अरे सुनो,
तुम जानती हो, तुम्हें याद नहीं होगा, वो दिन एक सुशोभित मंच पर मिले थे,.
समय के डोर पकड़ बातो ही बातों में मधुर बेला में मैंने प्रेम हेतु पुष्प थमा दिया था,
मुझे तुममे दैवीय सात्विक रूप दिखा था जो आज भी है,
बशर्ते मेरा समस्त स्वरूप बिगड़ चुका है अरे नहीं देवी ये कल भी वही था, हाँ ये सही कहूँगा सारे मेरे बताए एक एक बात जो मैंने सत्यता की पुष्टि दे बताया सत्य से ज्यादा नहीं था, एक दम तुला के सम काँटा पर आधारित,
आज भी वही हूँ, पर मैंने तुम्हारे लिए निश्चल जिद डोर थाम लिया था, और एक स्मृति संजो लिया था पर मैंने कभी स्मृति मध्य अनुचित सोच आज तक नहीं रखा, न होंगे,
मैंने तुम पर हक से ज्यादा तक भय में था,
देवी मैंने कभी तुम्हारे सात्विक चरित पर उंगली नहीं उठाया,
कभी अनुचित सिद्धि को नहीं सोचा, यदि ऐसा करूँ कर्म के पथ पर एक इंसानी जीवन को किस पुरुषार्थ में बन्द करूँगा ये तुमसे दूरी आज जीने न दे रहा कल ये क्षोभ जीने देगा,स्व जननी सौगंध ये मुझसे कभी न होगा, क्योंकि आप मेरे होने से पहले किसी घर की देवी हो लक्ष्मी हो सम्मान हो, यदि मेरे घर के लक्ष्मी के साथ हो किस आडंबर में गुजरना होगा, इसका असर अनुमान है
तुमसे अधिक मेरे सोच में नहीं, और देवी न होगा,
ये प्रण में बँधा निम्न ही पर पुरुष वचन है,
हो सके तो मेरे जीवन के अंत क्षण जो करीब है आना मेरे पावन प्रेम के निब पर मेरा संबोधन लिए
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