हाय , कितना नीरस यह जीवन !
पर्ण - पात धरा पर बिखरे
रही न उर में कोई उमंग ,
पथ - प्रशस्त हो न पाया
चला न कोई मेरे संग ।
ऐसी पतझड़ ऋतु आयी , पड़ा वीरान पुष्प बिन उपवन ।
हाय , कितना नीरस यह जीवन !
असंख्य रश्मियां क्षितिज पर
कितना सूना किन्तु आकाश ,
मनहर सांध्य की वेला में
कर जाता हिय को उदास ।
देख अम्बर विहग विहीन , उद्वेलित हो जाता तन - मन ।
हाय , कितना नीरस यह जीवन !
सबने कहा है मधुमय यह
कितना कोई बतला न पाया ,
है आरोह अवरोह आहों का
मैं केवल इतना समझ पाया ।
स्वार्थ से भरे इस जगत् में , कौन सुनेगा करुण - क्रन्दन ।
हाय , कितना नीरस यह जीवन !
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