Varsha Prajapati   (शून्य)
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Joined 7 August 2020


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23 AUG AT 22:18

हाँ, शायद हम मिल जाते
यदि vibes match करतीं
पर हम तो पूरे- के- पूरे ही इक जैसे हैं,
जैसे मानो reflection इक दूजे का!
तो क्यूँ भला तुम जवाब देने वाले...
और कहाँ तो मैं ही अब आगे पूछने वाली!?
और दोनों ही जाने देंगे इस बात को भी
कि कभी ऐसा ज़िक्र भी हुआ था,
और फ़िर इक दिन हो सकता है,
तुम्हें लगे जवाब देना चाहिए मुझे,
पर उससे पहले मैं तहे दिल से
तुम्हें भेज चुकी होऊंगी— अपनी शादी का कार्ड,
और हम रहेंगे दोस्त,
हमेशा जैसे....,
इक- दूजे को इस दुःख भरे जीवन में,
कुछ हँसती- गुदगुदाती reels भेजते हुए,
याद करते हुए और बस मंगल कामना करते हुए।
तुम्हारी शुभचिंतक,
शून्य!
🌼🍃🌼
...

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10 JUL AT 8:24

हे प्रभो!
//अनुशीर्षक में//
💕🪷💕
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11 JUN AT 9:13

____________________________________________________
वह मन, जो लगा हुआ है भेदने में
एक- एक कण को इस कारण- देह के,
और पा रहा है स्वयं को
स्थूल से सूक्ष्म और तीक्ष्ण होता हुआ
ताकि स्वतंत्र कर सके इस श्रॉडिंगर कथनानुसार
तरंग रूपी दिखते एक- एक कण को
और अल्केमी की प्रक्रिया संपूर्ण होते- होते
पिघला दे अस्तित्व उस आत्मा का,
जो विश्व की आत्मा है,
क्योंकि हर इक जीवन ही यहाँ
दूसरे जीवन के लिए कारण भी है
और कारण भी उनके होने का,
और रह जाए मात्र प्रेम,
सिर्फ़ प्रेम!
____________________________________________________

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31 MAY AT 17:39

थे तो परदा कराने वाले भी विद्वान ही,
हर बड़े बुजुर्ग फ़र्द के सामने,
क्यूँकि मन तो किसी का भी विचलित
या मैला हो सकता है किसी भी क्षण,
तो क्यूँ न बेहतर है
अपनी रक्षा की जिम्मेदारी भी स्वयं उठाएँ,
यह निर्धारित करते हुए,
किसके सामने से कितना पर्दा हटाए रखना है
जो स्वयं का विकास करे ।
मैं नहीं विरुद्ध आधुनिक महिला सशक्तिकरण के विचारों के
पर प्रकृति भी पक्षपात अन्याय के उद्देश्य से नहीं करती,
इसलिए बेहतर है अपनी प्रकृति अनुरूप
धर्म निभाते हुए कर्म किए जाएँ
तब जीवन उतना भी गरल नहीं ॥

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31 MAY AT 17:33

सभी हक पति से ही लड़कर लोगी?
कुछ अपने पिता- भाई से भी लेतीं!

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31 MAY AT 17:30

हाँ अब समझ आया,
Arrange marriage का फ़लसफ़ा!

क्यूँ उससे पनपा प्यार,
बसपन के प्यार से लंबा चलता है?

"अनिश्चितता की स्वीकार्यता
सहज सम्मान धर्म परायणता!"
...

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31 MAY AT 17:28

आधुनिकता की दौड में
होड़ ये लगाते जा रहे

अरे! देखो तो सही ज़रा
हम प्रकृति के विरुद्ध जा रहे

कहाँ से आएगा संतोष भी
जब संतुष्ट ही रंज किए जा रहे

जिम्मेदारी बोझ समझ
बाहर की मुर्गी उड़ा रहे

जो घर में है उसका सम्मान नहीं
उसे आत्मनिर्भर करना सिखा रहे

फिर कहें कॉम्पिटीशन बढ़ रहा
अब नहीं उतना कमा पा रहे

बढते फ़िर असंतोष का भी
जिम्मा उन्हीं पर डाल आ रहे

वाह रे तेरी माया भी कुदरत!
क्या- क्या खेल तुम खिला रहे?!

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27 MAY AT 3:47

Janmdin mubarakan sweety!
///Captioned///
💕🎂💕
...

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22 MAY AT 20:32

मैं जिम्मेदार क्यूँ बनूं?
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"जिम्मेदारी संतोष ला सकती है
जिम्मेदारी अकर्मण्यता मिटा सकती है

जहाँ मोह- तृष्णा शेष नहीं
वास नहीं इच्छा का बचा

आत्मा की पवित्रता निर्धारित रख
सत्मार्ग पर चले रहना सिखाती है।।"
🌷🍃🌷
...
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22 MAY AT 20:21

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मोह, इच्छाओं की समाप्ति और अकर्मण्यता से निकली
सत्मार्ग पर बने रहने के लिए बंधन अपनाती;
एक संतोष की झलक....
हाँ, संतोष— इक झलक!!
///अनुशीर्षक में///
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