Janmdin mubarakan sweety!
///Captioned///
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मैं जिम्मेदार क्यूँ बनूं?
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"जिम्मेदारी संतोष ला सकती है
जिम्मेदारी अकर्मण्यता मिटा सकती है
जहाँ मोह- तृष्णा शेष नहीं
वास नहीं इच्छा का बचा
आत्मा की पवित्रता निर्धारित रख
सत्मार्ग पर चले रहना सिखाती है।।"
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मोह, इच्छाओं की समाप्ति और अकर्मण्यता से निकली
सत्मार्ग पर बने रहने के लिए बंधन अपनाती;
एक संतोष की झलक....
हाँ, संतोष— इक झलक!!
///अनुशीर्षक में///
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कहीं तुम हराओगे, तो कहीं हरा दिए जाओगे!
///अनुशीर्षक में///
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पागल को और पागल करने की बात कर रहे हो,
अजी मियां, तुम तो निरा ख़ूब मज़ाक कर रहे हो।।
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क्यूँ कर ज़ाया हो जाया करे वो बात?
जो बीती संग तुम्हारे, अधूरी मुलाक़ात!
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धन्यवाद पत्र!
//अनुशीर्षक में//
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अच्छा हुआ जो तुम न मिले
वरना आज तुमसे भी उकता जाती,
और ये सब सहन करना सोच से परे मुश्किल है,
अपने न किए प्रयासों को तुम्हारे न मिलने से justify नहीं कर रही,
पर वाकई, तुम्हें चाहकर पाने के बाद भी,
या तो तुम्हारा मुझसे, या शायद कभी मेरा तुमसे,
ऊब जाना निश्चित ही था,
जब तक कि ख़ुद से न मिल लें,
और शायद इसलिए तुमसे न मिल पाने ने
मुझे ज़्यादा पूर्ण बनाया है।।
तुम्हारी प्रिय,-