प्यार का ये तो क़िस्सा पुराना हुआ
तुमको देखे हुए एक ज़माना हुआ
तुमको देखा तो साँसे रुकी ही नहीं
दिल ना पहले के जैसा दीवाना हुआ
चाँद सी लगती थी मुझको सूरत तेरी
मोह लेती थी मन को ये मूरत तेरी
अब तो चाहत कोई चाहकर न रही
पहले जीने को थी जो ज़रूरत तेरी
ख़त्म जीने का भी अब बहाना हुआ
तुमको देखे हुए एक जमाना हुआ
ना दिन अब रहा ना ही रातें रहीं
अब ना हम तुम रहे ना वो बातें रहीं
आंसुओं का बरसना तो कम ना हुआ
पर ना पहले के जैसी ये आँखें रहीं
ख़त्म रातों का जगना जगाना हुआ
तुमको देखे हुए एक जमाना हुआ-
किसी रचनाकार की अभिव्यक्ति है
लिखी गयी कलम से किसी कवि ... read more
रूठ कर जो जा रहे हो
छूट कर जो जा रहे हो
तुम भले अब दूर जाओ
किंतु जो मेरा था मुझको क्या कभी वापस मिलेगा
आंसू बन कर जो बहे थे
थोड़ी सी वो सिसकियाँ थीं
मेरे हिस्से थे सन्नाटे
थोड़ी सी कुछ हिचकियाँ थीं
तन्हाइयों का वो समाँ अब क्या कभी वापस मिलेगा
तुम भले अब दूर जाओ
किंतु जो मेरा था मुझको क्या कभी वापस मिलेगा
दिख रही हैं हाथों पर जो
लकीरों जैसी कुछ बची हैं
प्रार्थनाएँ कुछ कही सी
अनकही सी कुछ बची हैं
जो बचा था थोड़ा संबल क्या कभी वापस मिलेगा-
जीवन सफल बनाने वाले मुझको सारे ढंग दिए,
आंखों में जो भरे आज हैं सपने वो सतरंग दिए,
मुझे उड़ान भरने काबिल तुमने ही तो किया है माँ,
भले ना निकली ख़ुद घर से मुझको सारे पंख दिए।-
कुछ बातें शब्दों में ढलकर कवितायें कह जाती हैं
कुछ बातें अश्रु बनकर आँखों से बह जाती हैं
ख्वाहिश केवल इतनी है मौन रहूँ तो सुन लो तुम
कुछ बातें अधरों पर आते आते ही रह जाती हैं-
मिला किसी को करवाचौथ, थे सोलह सोमवार किसी के
किसी और के हिस्से आये वचन जो थे स्वीकार किसी के
बहुत थामना पड़ा कलेजा ये जीवन जीने की ख़ातिर
ना बस था किसी के आने पे ना जाने पर अधिकार किसी के-
बांधना हाथों में और मौली सा कर देना
भाल पर सजती हुई रोली सा कर देना
डालना बस एक मेरे प्रेम का ही रंग पिया
डूबकर मुझमें मुझे होली सा कर देना-
मन हो गया मलंग फागुन का महीना है
खुमारी ना हो मेरी भंग फागुन का महीना है
चढ़ा दो प्रेम के कुछ रंग थोड़े ढंग भी मुझपे
कि हो लो आज मेरे संग फागुन का महीना है-
जाने कितने रूप , कितने रंग लिए फिरती हूँ
मैं नारी हूँ जाने क्या क्या संग लिए फिरती हूँ
कितनों की दुनिया मुझमें है, कितनों की दुनिया में मैं हूँ
मैं सारे रिश्ते जीने के ढंग लिए फिरती हूँ-
दौड़ रहे मन के घोड़ों को रोकना मुश्किल बहुत है
इन चुप्पी साधे अश्रुओं से बोलना मुश्किल बहुत है
जब जब तेरी ओर चाहा इक कदम फिर से बढ़ाना
आया समझ मुझको कि गिरहें खोलना मुश्किल बहुत है-
मुझसे हो से गये हैं शब्द नाराज़ क्यूँ
मेरे ज़ेहन में आते नहीं हैं आज क्यूँ
पहले अशआर मेरे बात मुझसे करते थे
हो गई बंद उनकी आज आवाज़ क्यूँ-