तप्त धरा पर बनकर आँचल,
भरें चौकड़ी ये दल-के-दल,
मानो कोई हिरणी चलती, चाल चपल चंचल मतवाली!
घिरी बदरिया काली-काली!-
जीवन जितना ताप, ग्रीष्म क्या देगा।
अन्तस हिमनद घोर, कहाँ पिघलेगा।।
बासन्ती-सी उम्र, पड़ी मुरझाई।
सुन्दर सौम्य सुकांत, कली कुम्हलाई।।
आशाओं का बोझ, सदा मन ढोता।
सहता प्रतिपल पीर, स्वयं को खोता।।
अग्नि बाण से और, हृदय सुलगेगा।
जीवन जितना ताप, ग्रीष्म क्या देगा।।-
सुमङ्गला भूमि सुता दुलारी।
विदेह पुत्री छवि चित्त हारी।।
अयोनिजा हे प्रभु प्राण प्यारी।
नमामि माता शुभ स्वस्ति कारी।।
ललाट उद्दीपित ज्योति धारे।
लगे घने कुन्तल मेघ कारे।।
सुमोहिनी रूप सुसौम्य बोली।
सुकण्ठ हो स्यात सुधा सुघोली।।-
*आवाहन राम तुम्हारा*
रघुनायक रघुनन्दन के बिन, जगती का कौन सहारा।
कलियुग का कलुष मिटाने को, आवाहन राम तुम्हारा।।
आतंकों से आतंकित है, यह धरा तुम्हारी पावन।
छल का बल का जोर चले है, जग लगे नहीं मनभावन।।
सत्य सनातन आहत निशिदिन, लगें असत के जयकारे।
भेंट चढ़े हैं पाखण्डों के, देवालय के गलियारे।।
देख दानवी उत्पातों को, हिय ने फिर तुझे पुकारा।
कलियुग का कलुष मिटाने को, आवाहन राम तुम्हारा।।
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आगमन शुभ वर्ष नव का, मोहती वसुधा सुरम्य।
कामना के घट भरें शुचि, पथ मिले सबको सुगम्य।।
सुप्त मन की भावनाओं, को मिले ऊँचे वितान।
हो निशा आनन्द दायक, स्वर्णमय चमके विहान।।
– – ऋषभ दिव्येन्द्र-
ज्ञान की वसुधा पुरातन, लोकतान्त्रिक भू प्रसार।
ढूँढ़ता अस्तित्व अपना, आज पर मेरा बिहार।।
शान्ति हो सम्पूर्ण जग में, इस कथन का अग्रदूत।
किन्तु इस पावन धरा पर, आज हिंसामय प्रभूत।।
– – ऋषभ दिव्येन्द्र
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ब्याह रचाने चल दिये, शङ्कर भोलेनाथ।
व्याल गले में डोलते, भस्म लगाए माथ।।
भस्म लगाए माथ, सङ्ग में वृषभ सवारी।
सुर-मुनि का उत्साह, हरे जग की अँधियारी।।
भाँति-भाँति धर भेष, भूत गण गाते गाने।
रचकर अद्भुत स्वाँग, चले शिव ब्याह रचाने।।— % &नाना पुष्प प्रवाल से, शोभित मण्डप द्वार।
ध्वजा पताका सँग कलश, सोहे बन्दनवार।।
सोहे बन्दनवार, निरख हिमगिरि हर्षाते।
होकर प्रमुदित भाट, सुमङ्गल गान सुनाते।।
सुन्दरतम सौन्दर्य, रुचिरतम ताना-बाना।
मानो स्वयं वसन्त, सजाए कौतुक नाना।।
— % &माता प्यारी पार्वती, शोभा विपुल विराट।
अतुल अलौकिक दिव्य छवि, लोहित ललित ललाट।।
लोहित ललित ललाट, मेंहदी कर में सोहे।
स्वर्ण-सिक्त शृंगार, कान्ति आनन की मोहे।।
आभा भानु सहस्र, अखिल जग में विख्याता।
रूप निरूपण दास, करे किस विधि हे! माता।।
— % &भोले शङ्कर साँवले, वर्ण उमा का गौर।
मनहर मनभावन युगल, कहाँ जगत में और।।
कहाँ जगत में और, युग्म यूँ शोभा पाते।
मैना सँग हिमवान, मुदित मन से मुस्काते।।
रोम-रोम रोमाञ्च, हर्षमय तन-मन डोले।
शैलसुता के साथ, सुशोभित शशिधर भोले।।— % &-
कान्त कोमल कंज राजे, छवि मनोहारी।
चन्द्रवदना चारु चितवन, चंद्रिका धारी।।
कामरूपा ज्ञानमुद्रा, सिर मुकुट सोहे।
मालिनी सुषमा अलौकिक, चित्त को मोहे।।
*--ऋषभ दिव्येन्द्र*-
(महाकुम्भ को समर्पित कुण्डलिया)— % &छिड़ी लड़ाई रेत्र हित, देव-दनुज के मध्य।
दनुजों की थी लालसा, मधु पी बनें अवध्य।।
मधु पी बनें अवध्य, किन्तु कुछ बूँदे छलकीं।
भारत पुण्य प्रदेश, जहाँ पर आकर ढलकीं।।
हरिद्वार उज्जैन, संग नासिक फलदायी।
मिला पुनीत प्रयाग, हेतु जिस छिड़ी लड़ाई।।— % &पावन संगम की धरा, पावन तीर्थ प्रयाग।
चहुँदिशि होती आरती, बजते मधुर सुराग।।
बजते मधुर सुराग, प्रभो से प्रीति बढ़ाते।
धर्म सनातन मूल्य, प्रगति की राह दिखाते।।
उसी भूमि पर आज, लगा मेला मनभावन।
आस्था सँग विश्वास, कुम्भ की महिमा पावन।।— % &मेला धार्मिक यह शुभद, संगम तीर पुनीत।
महाकुम्भ की दिव्यता, लेती हृद को जीत।।
लेती हृद को जीत, सुरीली कल-कल धारा।
भरता है उल्लास, कनकमय कलित किनारा।।
कहे ऋषभ मनमीत, यहाँ पर कौन अकेला।
भाँति-भाँति के भेष, सुसज्जित पावन मेला।।
– – ऋषभ दिव्येन्द्र— % &-
मैं बाँहे फैलाए मुस्कुराते हुए कहता हूँ
आओ दिसम्बर! स्वागत है तुम्हारा....
*-- ऋषभ दिव्येन्द्र*
(अनुशीर्षक में पढ़ें)-