वो मुझ से कुछ ख़फ़ा है,
कहती है मेरा ज़ुर्म बड़ा 'संगीन' है
मैं 'तारीफ़' नहीं करता उसकी,
कहता नहीं कि वो 'हसीन' है
कहाँ से लाऊँ अल्फ़ाज़, कैसे कह दूँ उससे यह झूठ
की वो 'सिर्फ़ हसीन है'
वो जो, 'बयाबान' रेगिस्तान में खड़े
हरे-भरे 'दरख़्त' से भी हसीन है,
राह भटके किसी बंजारे को मिली
'ठंडी छाँव' से भी हसीन है,
दूर अंतरिक्ष से दिखती
इस 'नीली धरती' से भी हसीन है,
वो जो, वन में कुलांचे मारती
उस 'हिरनी' से भी हसीन है,
पूनम में नहाई किसी झील से,
लहराती पतंग को एकदम दी गयी ढील से,
फ़कीर को मिले 'दुशाले' से,
भूखे किसी बच्चे को मिले 'निवाले' से,
वो जो, चिलचिलाती 'धूप' में
किनारों पर बिखरे 'अभ्रक' से भी हसीन है,
कैसे कर दूँ मैं तारीफ़ उसकी
वो जो सारी 'क़ायनात'..
और ख़ुद 'हसीन' से भी हसीन है
- साकेत गर्ग-
माँ ए माँ माँ........कंठ सूख रहा है,इक़ निवाला देना
आज भूख बड़ी भारी है,ख़्वाहिशों की सिसकियों से-
राजनीति के खेल को गरीब भूखा कहाँ समझ पाता है,
जहाँ मिल जाए दो निवाले, उसे ख़ुदा का घर बताता है!-
कोई आदत भी बुरी नहीं मुझमें, कोई ऐब भी ना पाला है;
मैं गिरा हूँ जितनी मर्तबा, उतनी दफा ख़ुद को सम्भाला है!
तालीम ली मैंने अपने ही तजुर्बे से, है औरों को भी सिखाया;
नेकी की ओढ़ता हूँ चादर, ईमानदारी भोजन का निवाला है!
उम्मीद रहती है मुझे कि हर शख्स बा-वफ़ा होगा मेरे लिए;
जब बात होती है वफ़ा-ओ-मदद की, रहता मुँह पर ताला है!-
माँ इक दो निवाले पानी से मैं और गटक लूँगा
बस इक ख़्वाब सिरहाने,अमीरी का रख देना!
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✨निवाला, मातृप्रेम एवं लेखन✨
उन निवालों को कैसे भुलाया जा सकता है।
जिसमें कणें कम थीं परंतु प्यार अथाह था। ✨...(१)
जिनसे सलामत हैं ये तन्दुरुस्त तन और मन,
वाह! क्या उन्हें भी हमारा इतना परवाह था! ✨...(२)
न चाहने पर भी उन हाथों से खाना खाना पड़ता था।
माँ को मनाना, मुश्किल था, निगल जाना पड़ना था। ✨...(३)
तभी तो यह मन उदासी से हमें उबार पाया कभी।
न स्वप्न में भी कतई सोचा कि मौका आया अभी। ✨...(४)
गुमराही के दिनों में भी हल्का ऊजाला दिखा हमें।
कलम तैयार था पर स्याही न थी तो न लिखा हमें। ✨...(५)
हमने हमें लिखना तब शुरू किया जब पहचाना,
थोड़ा समय देख कुछ जाना, शब्दों को जमाना। ✨...(६)
पूरा असर शायद! प्यार के उन निवालों का ही है।
"कभी नहीं भूलना उन्हें", ये इरादा शायद सही है। ✨...(७)-
शाख़ से टूट कर , पत्ते मुरझा ही जाते है
मोहब्बत से टूट कर , फर्द बिखर जाते है
मोहब्बत गोहर है यक़ीन के धागे से सजाते है
माला टूट कर, मोती मोती बिखर ही जाते है
में एक रात जागू, वो कई शब सो नहीं पाते है
सुनो जनाब हमारे ऐसे,कई बेश कीमती नाते है
मुक़द्दस है उनका दिल, मेरी मोहब्बत के लिए
वस्ल की रात है,और वो हमे छू भी नहीं पाते है
नायाब सावला माह पाया है, शुक्र करो ख़ुदा का
ज़ैनब वो तुम्हारे बिना एक निवाला नहीं खाते है
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पहले ही मुकद्दर देखकर रोती है
दीवारों के आर पार झाँकती है जी
अकेले ही बैठे अब आँखें नम होती है
हाथ से निवाले नहीं तलब नींद की है जी
हिज्र में चैन मिले जो रात भर ना सोती है
भ्रम में ज़िंदा कोई इंतेज़ार में है जी
अरमानों से भरी ख़ाली थाली होती है-