ढल रही शाम तो ढलने दे
मेरे गांव के चिराग़ भी जलने दे
इतनी भी जद्दोज़हद क्या है
ख़ामोश शाम को रात से मिलने दे,
हो ना हो ये तेरी ही बात है
दूर है तू फिर लगता क्यूं पास है
"ज़ख्म" नासूर तो बन ही गए
फ़िर भी इन ज़ख्मो को सिलने दे,
कई बुझे सितारें जले होंगे
इक जलते चाँद की आस में
हां ये आसमां थोड़ा खाली सा है
तो ये सिलसिले भी चलने दे.....
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