मेरे खुदा को 'मर्ज़' है-
इक तुम्हारी याद का ,इक तुम्हारे साथ का
हर बात का,जज़्बात का और तेरी आवाज़ का
हाँ मर्ज़ है मुझे-तुझमें गुज़ारी रात का
परवाज़ सी उस रात को परवान तक चढ़ने दे।
तो फिर मुझे तेरी याद में पाँचो 'अज़ान' करने दे।
अपनी रेत सी यादों को यूँ रोम में समेट कर
पिघले हुए उन रोम को यूँ पानी बन कर बहने दे।
इन नसों को प्यास है तेरे मृदु स्पर्श का
तेरी टपकती सीलन से इन नब्जों को तर करने दे,
तो अब मुझे तेरी याद में पाँचो 'अज़ान' करने दे।
मेरे वज़ूद के हिस्से को जगा कर शाम-ए-अज़ान से
अपने जिस्म के अंश को मेरा 'नमाज़ी' बनने दे।
जला दे अपने अश्क़ को मेरे तपन की आँच में
आग सा तन -राख सा मन- चंदन सा शीतल करने दे,
तो मुझे तेरी याद में पाँचो 'अज़ान' करने दे।
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