एक नन्हा सा "पौधा" हूँ मुझे बढ़ने दो इंसानो
आखिर पेड़ बनके तुम्हारे काम ही आऊँगा ना-
नन्हा नन्हा बीज जो बोते,
विस्तृत इक खेत बन जाता,
जो सहेजता इसका खाता,
बोकर उसे तब चैन है आता।।
हो विष्णु तुम इसी धरा के,
कण कण से सृष्टि है रचता,
बूँद - बूँद ही जीवन बरसे,
जीवन सफल उसी से बनता!!!
सुधा सक्सेना(पाक रूह)
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मन के कौने में
एक नवपुष्प अंकुरित हुआ था।
बड़े ही संघर्ष को
उसने एक अरसे तक सहा था।।
न जाने कितनी
मुसीबतों से वो बचा हुआ था।
मन के कौने में
एक नवपुष्प अंकुरित हुआ था।।
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कितनी अभिलाषाएँ लिए
अपने ही ख्यालों में वो जी रहा था।
वो नादाँ नवपुष्प
इस दुनिया में आने के सपने संजो रहा था।।
इस दुनिया के
छल कपट और शैतानियत से वो अंजान था!
एक कपोल कल्पित कल्पना लिए
वो सुंदर सा नव पुष्प दुनिया में आने को बैचेन था!!-
कुछ ख्वाब जिंदगी के बस यूँ ही झुलस गए
मई जून की दोपहरी में कोई नन्हा पौधा हो जैसे-
वो नन्हा पौधा जो तुमने दिया था
उससे होगया है मेरा आँगन हरा भरा
लोग देखते है तो मुस्करा के पूछते है
अखिर निशानी है ये किस के इश्क़ का
मैं ज़वाब मे उन्हें संजीदगी से कहती हूँ
नहीं है ये महज़ इश्क़ की निशानी
भरोसा, वफा, उम्मीद, प्रेम, सम्मान
और खूबसूरत यादों से जुड़ी है कहानी
जैसे जैसे वो पौधा बड़ा होता है
वैसे ही हमारा रिश्ता भी बड़ा होता है
और उसकी मजबूत लताएं
हमारे दिल की धड़कनों को जोड़ता है
उस पौधे की हरियाली ऐसी है
जिसे देख दिल हरा हो जाता है
और गौर करती हूँ मैं जितनी दफ़ा
तुमसे रिश्ता उतना ही गहरा हो जाता है
मैं घण्टों बैठ कर किया करती हूँ
उस पौधे से तुम्हारी बातें
कि तुम कैसे काटती होगी
इसके बिना अपने दिन और रातें||-
मैंने सपने बुने बादलों से
और टाँग दिया उन्हें आसमान में
पर वो तो उड़ चले कहि और ही।
मैंने सपने बुने रँग-बिरंगे
बना उनसे इंद्रधनुष
पर अब वो नजर आता है कभी-कभी ही।
मैंने फिर सपने बुने तारों से,
सजा उनसे चमकता आसमाँ
पर हुआ सवेरा और हो गए वो अदृश्य कहि।
अब मैंने सपने बुने है फिर से
और बो दिया है उनको जमीन में
वहाँ खिला हैं एक नन्हा पौधा
बनेगा जो कल एक वृक्ष बड़ा
देगा राहगीरों को छाया,
बनायेगे पंछी उस पर अपना घर,
देगा वो मीठे से फल, ठंडी हवा
और मेरे मन को सुकून।-
वो बोया था नन्हा सा पौधा
ली थी संग उसके तस्वीरें भी बहुत
छपी थी अखबारों में बन के
वो प्रकृति का गुणवर्णन
हुई थी प्रशंसा भी बहुत
पर फिर कभी उस नन्हें से पौधें को
पलट कर देख तो लेते
थोड़ा तो अपनी स्वार्थपरायणता से
ऊपर उठकर सोच तो लेते।
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बिल्कुल एक नन्हें से पौधे जैसे
जिन्हें चाहिए होता है बस
थोड़ा सा खाद पानी वक़्त का
और थोड़ी धूप अपनेपन की
फिर वही रिश्ते देते हैं छांव
सुकून भरी जीवन पथ की
थकान भरी लंबी पगडंडियों पर
बन एक सघन और मजबूत वृक्ष
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जब एक
नन्हे से पौधें को उखाड़ कर
एक जगह से दूसरी जगह रोपते हैं
तो दर्द
उसे भी बहुत होता है
मगर ये कहां हम सोचते है.....-
हौसला जिस दिन दिन तुम्हारा आग से टकराएगा
तुम बादलों की बात छोड़ो सूरज पानी बरसाएगा
तुम्हारे कोशिशों की जुड़ेंगी जिस दिन कड़ियाँ सभी
सूखी फटी धरती से निकल नन्हा पौधा मुस्काएगा।
✍🏻--" विशाल नारायण "
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