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इजाज़त ना थी जिसे पराये नर से दो बात की
आज दहेज में उसे बिस्तर मिला है।-
माना!
बहूएं तोड़ती है घर को ,
क्योंकि एक बेटी ने देखा होता है ,
दहेज़ इकट्ठा करने में अपने पिता को टूटते हुए ।-
"रश्म दहेज की"
दिया है ये जो खंजर इस जमाने ने हमको
इस दर्द-ए-सितम को कुछ यूँ भुलाया जाय।
विदा किया कैसे अपनी सीता को जनक ने
वो मंजर दुनियाँ को कुछ यूँ दिखाया जाय।
क्यूँ थम सा जाता है वो पिता बेटी को देखकर
उसके सीने के इस डर को अब यूँ हटाया जाय।
तुम आना दो-जोड़े और माँग में सिंदूर लिए बस
कि अपने दर को आज कुछ यूँ सजाया जाय।
और कब-तलक चलेगी यूँ ये रश्म दहेज की
आओ साथ मिलकर इसे कुछ यूँ मिटाया जाय।
बड़े फुरसत से बनाया है खुदा ने इस दुनियाँ को
बेहतर बना इसे इंसान का फर्ज निभाया जाय।-
कही खरीदी गई .... कही बैची गई ....
रिश्तों के नाम पर बस तू ठगी गई ....-
बहुत चहलपहल है आज, सुबह से इस घर मे,
बेटी के ख़्वाबों की सरेआम बोली जो लगनी है।-
करते हैं भ्रूण हत्या और बरकतें चाहिए
उखाड़ के बाती दीपक से रोशनी चाहिए
इक़्तिज़ा है दहेज में बँगला और गाड़ी
फिर बेटा ब्याहने को बेटी भी चाहिए-
बिकता कहीं वर है यहाँ, बिकती तथा कन्या कहीं,
क्या अर्थ के आगे हमें अब इष्ट आत्मा भी नहीं !
हा ! अर्थ, तेरे अर्थ हम करते अनेक अनर्थ हैं
धिक्कार, फिर भी तो नहीं सम्पन्न और समर्थ हैं
क्या पाप का धन भी किसी का दूर करता कष्ट है ?
उस प्राप्तकर्ता के सहित वह शीघ्र होता नष्ट है
आश्चर्य क्या है, जो दशा फिर हो हमारी भी वही,
पर लोभ में पड़कर हमारी बुद्धि अब जाती रही !-
बिदाई के पहले भी घर मे बहुत शोर था।
जमानों से रखे पुराने गुल्लक जो टूट रहे।-