दफना दिये थे कुछ शब्द कल रात मैंने
सुबह देखा एक कविता है खिली-
मैंने यादों की गठरी बाँध
अंतःस्थल में दफ़ना दी है
और...
बन गई हूँ...... कब्रिस्तान !!-
कौन ? रखता याद, उन फूलों को........,
जो शाख से झड़ कर, ज़मीन पे ही, सुख जाए।
हमें तो, वो सुखा फूल बनना है, जो!
कोई अपने किताबों में, हमें, दफन कर जाए.......।।-
क़ब्रे सारी खाली पड़ी हैं,
और ,
इंसान अपने ही अंदर दफन हो रहा हैं।
😐😐😐-
दफन हैं सब सच, तुम्हारे ख़ुद में,
क्यों आईने में बार बार देखते हो।
आने,चार आने क्या बढ़े बाज़ार में,
बारी-बारी तुम तमाम बिकते हो।-
जनाब फिसलता बहुत तेज है,
विपरीत जो चलता है टिकता वही है
अक्सर वक़्त के साथ चलने वाले
वक़्त के साथ ही दफन हो जाते हैं
जिन्होंने वक़्त को आंख दिखाई है
उन्होंने ही कामयाबी पाई है।।-
दिल की ख्वाहिश दिल मे ही दफन हो जाती है अकसर
वक्त और हालात के कफन से,
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दिल में दफन दर्द यूँ जल सा जाता है
फिर वो दर्द हमें कुछ इस तरह जलाता है
यूँ तो कहते है लोग की हम साथ है तेरे
पर तन्हाई में अक्सर इन्सान
खुद को अकेला ही पाता है!!-
दफ़न होती जा रहीं हर इक ख्वाहिशें
हर कोई आकर मातम मनाकर चला जा रहा
रुह की खबर नहीं, जिस्म मेरा कब्रिस्तान हुए जा रहा ।।-
कब्र के गिर्द पर गिरा आंसू , गम के गुबार में जज्ब किसका है ,बे इख्तियारी में पड़े तुम कौन , दफन एक फिर कह दो यह प्यार किसका है।
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