माज़ी के सफ़हे
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अब सफ़हे माज़ी के पलटे कौन!
गुज़रे लम्हे कौन जिए!
पैबन्द लगा दिल फिर गर फट जाए,
तो मुए को कौन सिये!
माना आपाधापी है,
फिर भी ये नाइंसाफी है
कोई हर पल मरता रहे,
कोई मर मर कर जाय जिए
रखकर इश्क़ तराज़ू में,
जब नशा किया तो तोला था
वफ़ा तो बस थी इक छटाँक भर,
बड़ा सा लेकिन झोला था
कहने वाले कह गए क्या क्या,
हम ढूँढ़ते रह गए क़ाफ़िए
अब सफ़हे माज़ी के पलटे कौन!
गुज़रे लम्हे कौन जिये!
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