अंजलि राज  
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Joined 22 May 2017


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Joined 22 May 2017

जब ज़रूरत खुद की हो, उनसे गिला क्या कीजिए।
झूठ या सच जो कहें वो मान ही अब लीजिए।


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मुझे सिखाया हर इक बशर ने।
हर इक शहर ने हर इक सफ़र ने।
किसे सराहूं, किसे नवाज़ूं,
सभी से ली ख़ुशबू इस अतर ने।


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ज़िन्दग़ी के लम्हे जैसे हर्फ़ हों क़िताब में।
मुड़ के फ़िर से पढ़ सकें हैं जिनको सिर्फ़ ख़्वाब में।
क्या है, क्यों है, कब तलक है ज़िंदगी, ये पूछ मत।
ढूंढता जवाब कौन चीज़ लाजवाब में? 

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मुझे मिल गया वो जो था मेरा,
जो न मिल सका तो गिला नहीं।
मुझे इल्म बस इतना ही है,
जो मिला नहीं, था मेरा नहीं।

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कोहेनूर हो बेशक, पर्दे में कब दिखता है?
सजता जो बाज़ार में है बस वो ही बिकता है।
जुगनू की भी कीमत पड़ जाती है बस्ती में।
सूरज उगा हुआ जंगल में, किसको दिखता है?

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17 MAY 2024 AT 17:56

बुला लेंगे तुझे आवाज़ दे कर,
नहीं तौहीन इसमें कुछ हमारी।
न हो पाएगा पर ये रोज़ हमसे,
है तेरी भी तो थोड़ी ज़िम्मेदारी।



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14 MAY 2024 AT 20:57

इन ख़्वाबों और ख़यालों में बस फ़र्क़ इसी इक बात का है।
इक जगती आँखों का सूरज , इक चन्दा सोती रात का है।

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13 MAY 2024 AT 20:01

जितना भी लिक्खूं तुझको कुछ कम सा रहता है।
अहसासों का चेहरा रंग बदलता रहता है।


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12 MAY 2024 AT 21:33

प्रश्नों का ज्वर जब जब माथा दहकाये।
पूर्ण समर्पण का जल ठंडक पहुंचाये।


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8 MAY 2024 AT 21:54


ये ज़ख्म इसलिए हरे हैं ताकि याद रहे,
कि तुझसे फ़ासला मेरे लिए ज़रूरी है।
मैं रोज़ इनको तेरी याद दिला देती हूँ,
इन्हें कुरेदना मेरे लिए ज़रूरी है।

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