जिन्दगी के हर पन्ने से कुछ यूं रुबरु होते जा रहे हैं
सलाखें पल पल बढ़ रही कैद हम होते जा रहे हैं
तलाश थी हमें खुद से खुद की पहचान कराने की
बंदिशों के आसमान में उड़ने से पहले खोते जा रहे हैं
संगमरमर से बनी थी मिनारें उनकी आशियाने की
पहरे थे हवाओं में गमों के आंचल मे सोते जा रहे हैं
मिलना आप हमारी शिकायतो से सम्हाल कर रखी है
यादों की माला मे अधूरे मोतियों की तरह पिरोते जा रहे हैं
सफ़र है लम्बा जिन्दगी का ,दूरी मीलो सी लगने लगी
धड़कने थी उफ़ान पर सांसों की डोर छोड़ते जा रहे हैं।
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तेरी ख़ामोशी में इक अजीब सा शोर हैं
तेरी निगाहों में शब्दों से ज़्यादा ज़ोर हैं
चंद दिनों पहले ही बाँधी हमने इश्के-दी-डोर हैं
ना लो यूं इम्तिहान फ़िलहाल वो थोड़ी कमज़ोर हैं-
कहा भयौ, जौ बीछुरे, मो मन तोमन-साथ।
उड़ी जाउ कित हूँ, तऊ गुड़ी उड़ाइक हाथ।।-
आज पतंग उस ने जो बाज़ार से मँगवा भेजा,
सादा माँझे का उसको नाज़ुक सा गोला भेजा!
नाम उसका ले के, मैनें ये इशारा भेजा,
ये हरकत है बुरी, उस ने ये फ़रमा भेजा!
उस की फ़रमाइशें क्या क्या न बजा लाया मैं,
कभी पट्टा, कभी लचका, कभी गोटा भेजा!
मुलाकात की जगह वो भूल गए क्या हम को,
ना मिलने का उसने उसी पतंग का पुर्ज़ा भेजा!
_राज सोनी-
हालातों से हारे
वक्त के मारे
तुम भले ही दुनिया को लगो बेचारे
मगर जिन्दगी की डोर को
ना छोडना "आत्महत्या" के सहारे
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बीत रहा है हर लम्हा, सांसों की डोर से लिपट कर,
वक्त के तराजू में यूँ ही झूल रही, जिंदगी अपनी !-
न जाने क्यों? मेरे दिल के डोर, उनके दिल की डोर से, जा उलझे।
अब ये, उलझन को न सुलझाओ,
बस खुदा, उनकी बाहों में, मेरी शामों-सहर गुज़रे।।-