जो कुछ भी तुम्हारा अतीत है
एक साथ बता दो।
मैं उसे स्वीकार कर लुंगी।
क्यों मुझे कुछ बताने में तुम्हें
हिचकिचाहट होती है?
क्यों तुम इस टूटते विश्वास
को नहीं रोकना चाह रहे हो?
क्यों तुम इस रिश्ते में विश्वास
नहीं डाल रहे हो?
क्यों इसे टूटता छोड़ देने के
लिए मजबूर हो?-
महिला अधिकार के नाम पर हम क्या कर रही हैं
कुछ सदुपयोग तो कुछ दुरुपयोग कर रही हैं ....
कानून आँख बंद कर इंसाफ न करे,
थोड़ी सी वो भी पुरुष वर्ग की बात सुने...
छोटी छोटी बातों पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज करा देती हैं
घरवाले समझ पाते कि पुलिस आकर दस्तक दे देती है
एक व्यक्ति नहीं पूरे परिवार का मान खाक हो जाता है
ये बात स्वार्थ नहीं समझ पाता है,....
सुख कोई वस्तु नहीं कि धन से खरीदा जा सकता है
अरे सुख तो अपने द्वारा उत्पन्न किया जाता है
कहीं तुम थोड़ा सा सहन कर लो कहीं कुछ उनको समझा दो
ऐसा करके क्यूँ न पति पत्नी के रिश्ते को बचा लो...
अहंकार पर मिट्टी पाओ,कोशिश करके घर बचाओ
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उनका कहना के हम जैसे भी हैं कमाल हैं
फिर न बदले जो हम तो क्यों खटक गए…
वो मिटाते गए राहों से अपने निशाँ तमाम
और लोग समझे के रास्ता हम भटक गए …
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बदलते लोग, टूटते रिश्ते
अंदर बेचैनी है
बाहर भी शोर है
कुछ टूट रहा है
शायद रिश्तों की डोर है।
कैसे समेटू सब कुछ
आँधियों का जोर है
किससे मदद माँगू
सबके मन में चोर है।
किसपर उँगली उठाऊँ
इशारे अपनों की ओर है
बिछड़ने की बारिश होने को है
साजिशों का घटा घनघोर है।
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उसके हाथों में हाथ तो थे पर वो मेरे नहीं थे,
मेरे नाम की माँग और भाग्य में फेरे नहीं थे।
फ़रेब-ए-रकीब की क़फ़स में हो गई क़ैद,
जो दिखे थे शरीफ़, वो शरीफ़ चेहरे नहीं थे।
आराम से भर सकते थे, पर कोशिश न की,
छोटे-छोटे ही थे ज़ख्म इतने भी गहरे नहीं थे।
हर कोई सुन सकता था टूटते दिल का शोर,
अरे शहर भर में लोग इतने भी बहरे नहीं थे।
ज़िंदगी में लिखे थे फ़क़त ढलते शम्स 'सैंडी'
इब्तिदा से अंत तक, एक भी सवेरे नहीं थे।-
उनसे शिकवा,शिकायत और गिला करते हैं,
अब क्यों ना अपनी उम्मीदों को ही परे रखते हैं..-
एक पुरानी ऐनक कुछ शिकवे, कुछ यादें
दरारें पड़ गयीं थीं जिसमें खुद में समेटे, पड़ी थी
ठीक वैसे हीं जैसे रिश्तों में एक कोने में, ठीक वैसे हीं
अक्सर हो जाती हैं फांकें मानों कहीं छोड़ आएं हों हम
जाने-पहचानने कई पुराने चेहरे ....-
तूने किरदार को मेरे यूं ही मरता छोड़ दिया,
हमें ज़िन्दगी कहा और हमसे ही रिश्ता तोड़ दिया...-
रिश्तों का शीशा,
टूटता बड़ी आसानी से है
पर चुभ जाएं तो ,
खून और दर्द भी आसानी से दिखता है ।-
वक़्त की माला से टूटते लम्हों के इन मोतियों को ,
जी करता है के साँसों के धागों में पिरोकर रख लूँ .
एक और रिश्ता फिर इतिहास बननेवाला है शायद,
सोचता हूँ कि दिल की किताब में संजोकर रख लूँ .
फिर बुलाएंगी यादें उसकी गम की दावत पर आज़,
मैं गम खाने से पहले अश्कों से हाथ धोकर रख लूँ.
बहुत सख्त है यह गम तेरा चुभेगा 'राज़'के दिल में ,
सोचता हूँ सारी रात इसे अश्कों में भिगोकर रख लूँ .-