जिसने दस हज़ार से अधिक झीलों को संभाला है
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मैं देखता रहता हूँ तेरी आँखों में
यार अच्छी लगती है ये झील मुझे
अपनी आँखों की एक तस्वीर दो
मिल गई लगी दीवार में कील मुझे
यूँ नोच ना ले जाए तेरी आँखों को
मारने पड़ेंगे आसमाँ के चील मुझे
ये कैसी सज़ा है तुझे ताकने की
क्यूँ बैठा दिया दूर कई मील मुझे
हो काला काजल काली आँखों में
फिर कहाँ अच्छे लगते नील मुझे
दिल है के तेरी आँखें हँसती देखूँ
दिखनी ना चाहिए कभी सील मुझे-
एक झील
है तुम्हारे नैनों में
न चाह कर भी
डूब जाता हूँ मैं
उसकी गहराई
इतनी गहरी है
कि और कुछ
दिखाई नहीं देता
डूबने के बाद
नशे में चूर
हो जाता हूँ
अच्छा लगता है
नशे में चूर रहना
और तुम्हारे
नैनों में डूबे रहना-
जो तुम्हारी आँखों से बयान होते हैं
वो लफ्ज शायरी में कहाँ होते हैं,
तुम्हारी इन झील सी नीली आखों में
डूब जाने की हसरत हैं,
कहदो इन नज़रों से मुझे तुमको
निहारने की चाहत है...-
इन आंखों में जो खोया
उसे खुद का होश न रहा
इसीलिए इनका नाम
कभी मयखाना तो
कभी जाम रखा है-
सागर के दामन में
नदियां बहुत थीं,
मैं कम्बख़्त झील बनी,
अब बारिश़ पूछती है
अक्सर मुझसे,
ये अस्तित्ववाद था या
मजबूरी थी?
सवालों को सुनकर
कुछ पल के लिए तो
सिरहन सी होती है मन में,
फिर बूँदों में सागर को
देखकर मन स्थिर हो जाता है।-
उनसे होने लगा है इश्क़, क्या किया जाये
रोक लें ख़ुद को या अब होने दिया जाये
गालों की लाली है उनकी सुर्ख़ गुलाब सी
काँटो से डरें या ये ग़ुलाब चूम लिया जाये
नज़रें हैं चाँदनी में नहाई हुई झील उनकी
सूखे रहें या अब झील में नहा लिया जाये
दिखती हैं किसी हूर-ए-अदन सी हसीं वो
देखते रहें या उनको गले लगा लिया जाये
टपकती है मोहब्बत बातों से उनकी भी
टपकने दें या अब सीधा पूछ लिया जाये
सुना है इज़हार-ए-इश्क़ होता है अदब से
अदब में रहें या अब बेशर्म हो लिया जाये
- साकेत गर्ग 'सागा'-
वो मुझ से कुछ ख़फ़ा है,
कहती है मेरा ज़ुर्म बड़ा 'संगीन' है
मैं 'तारीफ़' नहीं करता उसकी,
कहता नहीं कि वो 'हसीन' है
कहाँ से लाऊँ अल्फ़ाज़, कैसे कह दूँ उससे यह झूठ
की वो 'सिर्फ़ हसीन है'
वो जो, 'बयाबान' रेगिस्तान में खड़े
हरे-भरे 'दरख़्त' से भी हसीन है,
राह भटके किसी बंजारे को मिली
'ठंडी छाँव' से भी हसीन है,
दूर अंतरिक्ष से दिखती
इस 'नीली धरती' से भी हसीन है,
वो जो, वन में कुलांचे मारती
उस 'हिरनी' से भी हसीन है,
पूनम में नहाई किसी झील से,
लहराती पतंग को एकदम दी गयी ढील से,
फ़कीर को मिले 'दुशाले' से,
भूखे किसी बच्चे को मिले 'निवाले' से,
वो जो, चिलचिलाती 'धूप' में
किनारों पर बिखरे 'अभ्रक' से भी हसीन है,
कैसे कर दूँ मैं तारीफ़ उसकी
वो जो सारी 'क़ायनात'..
और ख़ुद 'हसीन' से भी हसीन है
- साकेत गर्ग-