Pihu Trivedi   (पदचिह्न)
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राष्ट्रवादी पीहू आर्या
Joined 7 November 2019


राष्ट्रवादी पीहू आर्या
Joined 7 November 2019
27 APR AT 13:27

देश प्रेम
मैं - क्या है भाई ये देश प्रेम?
भारत - अपने देश के प्रति श्रद्धा
भक्ति एवं समर्पण का भाव |
मैं - तो तो मैं देश प्रेमी हूं |
भारत - अच्छा! कैसे?
तुमने मतदान तो किया था न?
मैं - नहीं भोपाल गई थी तो नहीं कर पाई |
पर हां समाचार पूरे सुने थे |
भारत - ओह! तो तुम्हें सारी योजनाएं तो पता होंगी?
मैं - नहीं यार इतना समय कहां?
भारत - अच्छा कर तो पूरे भरते होगे न?
मैं - हां यार !पर कहीं कहीं चोरी कर पाऊं तो क्या हर्ज है?
भारत - पता चला कश्मीर के पहलगाम में क्या हुआ?
मैं - हां यार! पर यार मैं तो नहीं थी| अच्छा हुआ |
वैसे एक बात बताओ सरकार कुछ करती क्यों नहीं l
भारत - तुम्हारे देश प्रेम के कारण !
कर तुम्हें देना नहीं ,
देश से कुछ लेना नहीं,
मतदान से नाता नहीं ,
आतंकियों पर गुस्सा आता नहीं ,
किस अधिकार से सरकार पर उंगली उठाते हो ,
जब अपने फर्ज नहीं निभाते हो l

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9 APR AT 14:01

वक्त की धूल
उफ्फ....
लगा था पुराने पर्दों की तरह
रिश्तों में भी धूल लग जाती होगी
या पुरानी मशीन की तरह
लग जाती होगी उनमें जंग
पर शायद में गलत थी
रिश्ते वक्त के साथ न तो
धूल खाते है न ही खाते जंग
हमारे स्मृति पटल से
बोझिल हो जाते कुछ क्षण
फिर शूल से चुभते है
अपने अस्तित्व की लड़ाई में
फिर टीस देते है
अनजाने अनचाहे रिश्ते
कुछ खास अपने पन से रिश्ते
जाने कब अपने पराए हो जाते है
और पराए अपने से लगने लगते
हमें जिन रिश्तों को रोपना चाहिए
प्रेम जल से सींचना चाहिए
सिर्फ उन रिश्तों के लिए
वक्त की कमी होती है
जिन की मुस्कुराहट जीने
की वजह होती थी कभी
उनको मुस्कुरा कर देखे
बरसों बीत जाते है
हम झूठों रिश्तों पर
मलहम लगाते लगाते
सच्चे रिश्ते भूल जाते है

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5 APR AT 13:56

मुझमें कोई कमी नहीं
परिपूर्ण में स्वयं में ही
क्यों रीति रिवाजों के
नाम बलि चढ़ाई जाऊं
क्यों अपनी बात पर
स्वयं खरी न उतर पाऊं
क्यों मेरी ही भावनाओं
का कोई मोल नहीं
क्या मेरी भावनाएं
मेरे लिए अनमोल नहीं
यदि मैं सभ्यता संस्कृति की
बात करूं तो
तो दकियानूसी कहलाती हूं
जब मैं आधुनिक बन
सब काम स्वयं कर जाऊं
तो कुछ लोगों की आंख में
तब मैं चुभ जाऊं
क्यों आज भी दोहरी मानसिकता
क्यों आज भी इतनी है अशिक्षा
हर हाल में बस गलत में ही हूं
क्यों मेरे लिए खुला आकाश नहीं
क्यों अपने सपने में ही सिंचू
क्यों अपने सवाल में स्वयं उलझूं
मेरे पास तो हर सवाल का
बस इतना ही जवाब है
मेरा मौन मेरी स्वीकृति नहीं
वो मेरी संस्कृति है
मैं स्वयं मैं ही हूं पूर्ण
जो तुमको करूं संपूर्ण

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17 MAR AT 16:51

कुछ अनकहे शब्द होंठों पर आकर ठहर गए
जो तुमको देखा तो कदम कुछ ठिठक गए
यादों के गलियारे में एक हुक सी उठी
और फिर हम उन गलियों में पहुंच गए
रूठा रूठा सा कुछ समा हमें वहां लगा
कुछ टूटे से पत्ते कुछ भीगे से तकिए
उन सब को देख हम बिन बात ही सुबक गए
उफ्फ तेरी बातें उफ्फ तेरी बेवजह की बेरुखी
सब याद कर आज फिर हम सिसक गए

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5 MAR AT 11:47

तुम्हारी बातों की ये बेबाक शराब
हर शराब से ज्यादा है नशा इसमें।

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28 FEB AT 21:05

मैं कौन हूं
यह सवाल गहराता जा रहा
धुंध धुंध हर तरफ न
रास्ता नजर आ रहा
अपने अस्तित्व को नकार
किस आत्म विश्लेषण में
मैं अब तो जा रहा
खिलौना समझने की भूल
सब ही अब करने लगे
क्या मेरा होना अब
बेमतलब होता जा रहा
ईश्वर की अद्वितीय रचना मैं
यह विश्वास अब गहरा रहा
अंधेरा ही अंधेरा हर तरफ
यह किस अमावस्या में
मैं खोता जा रहा
एक जीर्ण रोशनी भी बहुत
है मेरे लिए
पर मैं वो रोशनी भी नहीं पा रहा
कांपते हाथों से मैं
स्वयं ही अपना अस्तित्व मिटा रहा

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25 FEB AT 13:23

एक सुलझी हुई कहानी थी मेरी
खुद ही उसे उलझा रही हूं
आज मैं अपनी ही सपनों की दुनियां
खोकर हकीकत को झुठला रही हूं
न तुझसे इकरार था कभी
न ही था इंकार कभी
पर इस कशमकश में थी
हर बार बस तो मैं ही
हर बार टूटी, बिखरी फिर
खुदको समेटने की जिद में
खुद ही मिटी हूं मैं
गमों को आंसू बना
बहा करती थी कभी
अब उन्हीं आंसुओं को
हसीं मैं छुपाए जा रही हूं मैं
आज न युद्ध का आगाज
न विरह की वेदना
ये किस मोड पर अब
बहती जा रही हूं मैं

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1 JAN AT 15:51

जितनी बात करते हो
उतना पास आते हो
मैने तो सुना था
ज्यादा मिठास में
कीड़े होते
पर कैसे कहूं
हर मुलाकात के
बाद और मीठे
हो जाते हो
प्रेम समर्पण मैं न जानूं
पर दिल से तुमको
बस अपना मानूं
एक कशिश है तुम में
जो मुझे तुम्हारी ओर
खींचती है
तुम्हारी ही सूरत
हर पल आंखों में
घूमती है
दो आसूं बह जाते
पलकों के कोर से
जब हकीकत से
नजरे मिलती है।

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2 SEP 2024 AT 12:39

टूट कर बिखर रही
हर पल जिंदगी
आंसुओं में डूब रही
बेबस सी जिंदगी
एक अजीब कशमकश
एक अजीब अजमाइश
कर रही जिंदगी
यूं तो मुस्कुराने के
हजार बहाने
पर आज कल चुप
सी गुजर रही
खामोश जिंदगी
लगता है अब तो ऐसा
अपने अंतर्मन के भाव से
अपने अंजाम पर
पहुंच रही जिंदगी
फलसफा बस इतना सा
बिना चाह के
मिट रही जिंदगी

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1 SEP 2024 AT 9:45

ये शब्दों की कमी क्यों है
जबकि सारे वक्तव्य बाकी है
स्मृति पटल पर अंकित
अभी तो सारे ख्याल बाकी है
यादों के ये तूफान बाकी है
कोई खंडहर से मीनार का
पता पूछ रहा था उस दिन
उसे क्या पता कि
कितने जज्बात बाकी है
जीने की कोई वजह तो नही
बेवजह जीने में भी मजा नही
पर कैसे समझाए
कि जिंदगी से कितने
अरमान बाकी है
टूटे बिखरे कई बार
पर जाने कितने तूफान बाकी है
सिमट के खुद की हसरतों में
अब तो बस जान बाकी है

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