जाने की
हमें रोकने का बहाना चाहिए था-
थोड़ासा वक़्त तो मांगा था हमने ,
लेकिन तुम्हें जल्दी बहुत थी !
छोड़ गए अकेला हमें ,
शायद हमारी मोहब्बत थोड़ी कमज़ोर थी !
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तुम्हें जल्दी बहुत थी सफ़रे'उल्फ़त से रुख़सत की
एक मैं था मंज़िल-ए-मक़सूद छोड़ने की ज़ुर्रत की।
लिबासों की तरह तेरी जुस्तजू-ए-यार बदलती रही
हमने तो बुतपरस्ती में ज़ुनूनीयत से निसबत की।
अपनी फ़ितरत-ए-हसरत से तू कभी बाज़ न आई
और सौदाई मैं सब समझते भी तेरी सोहबत की।
शक्स यारें'उल्फ़त में वजूदे'हस्ती भी मिटा दे तो
फ़िर भी बेमुरब्बत को लगता हैं क्या मोहब्बत की।-
गुज़ारिश है तुझसे ऐ-चाँद वक्त से निकल जाना
मेरी माँ भूखी-प्यासी है आज जरा जल्दी आना-
तुम नाराज हो जाते हो, जल्दी ही,
यहाँ जब मैं,पहले से ही नाराज चल रही हूँ।-
मंजिल तक जाने की।
मैं रुक कर इंतज़ार करता रहा तुम्हारे लौट आने की।-
एक तुम भी ना कितनी
जल्दी सो जाते हो…
लगता है इश्क को
तुम्हारा पता देना पड़ेगा...-
जो पास से गुज़रते हैं
जल्दी गुज़र जाते हैं
दूर के दृश्य
देर तक नज़र आते हैं-