तेरे हम-नवा के अहल नहीं मैं माना छोटी सी बात थी
लौटने के सारी कस्ती जला दी ये कैसी ताल्लुकात थी ।-
कुछ अपनो के है,कुछ अपने हैंl
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या मौला कोई मसीहाई इनायत हो जाएं
इसके ज़ानिब एज़ाज़-ए-हिमायत हो जाएं।
दरम्यां सबके रवानगी की दर्द पल रहे हैं
सबका साथ रहे न कोई शिक़ायत हो जाएं।
सबके करमों से मज़ीद इज़ाफ़ा होता रहे
जलाल में कमी न रहे ये रिवायत हो जाएं।
जानसिं के अहल नहीं ख़ादिम मैं हो जाऊं
पीर'मुरीदगी बनी रहे ये रि'आयत हो जाएं।-
भटकती रही कस्ती अपनी गिर्दाब के किनारे
आवाज़ के सहारे पहुँचा तेरे फ़िरदौस-ए-द्वारे।
भरे बज़्म में रक़ाबत के ज़हर से गए हम मारे
बता ए ज़िन्दगी अब जियूँगा मैं किसके सहारे।
क़ल्ब-ए-फ़िगार के दामन से कौन मुझे उबारे
पमाले'आरज़ू अपनी भटकती रही मारे-मारे।-
चंद कमजोर लम्हों से शख्सियत न माप
शक़्स के हालात बुरे होते हैं ये सब न मानी हैं
जब मुक़दर फ़ना ही होना हैं
करें क्यों अहंकार सबको एक न एक दिन जानी हैं।
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ऐ दिल तेरे शौक़े'अज़ीयत से परेशान हो चला हूँ
लाश ढ़ोता आरमनों का कैसा इंसान हो चला हूँ।
इस उम्र-ए-दौरा में भी जीने का सलीका न आया
मेरे ख़ालिक, देख ये सब मैं अब हैरान हो चला हूँ।
ग़मो से लिपट के रोती रहती हैं अक़्सर आंहे मेरी
तज़ादे'पैहम से उलझा ग़मज़दा हैवान हो चला हूँ।
ख़याल-ए-सूद-ओ-जियाँ में उलझी उलझन मेरी
गोया मैं झोलीदा बनिये का सामान हो चला हूँ।
कौन निभाता हैं साथ भला गर्दिश-ए-अय्याम में
तकाज़ा-ए-वक़्त से महरूम वो नदान हो चला हूँ।
तस्बीह कर के चश्म-ए-तर करती रही दुआ मेरी
नालिश करता हुआ मैं कितना अनजान हो चला हूँ।-
ये चांदनी रातें और तसव्वुर दिलदार के
मखमली एहसास और धनक वो प्यार के।
वो तबस्सुम वो तरन्नुम उलझन तकरार के
उफ़्फ़ तौबा मार ही डालेगा जलबे यार के।
नज़रे झुकाएं मंद मंद मुस्कुराना गुलनार के
कैसे भुलाऊँ मुझे याद हैं दिन वो इज़हार के।
बस एक झलक पाने - खड़े रहना हर बार के
फुरकत में सोचता हूँ क्या दिन थे इंतेज़ार के।
बेरिदा हुआ शूल से चुभेने लगे ताने खार के
भूलाने लगी वास्ता पड़ा जब गमे'रोज़गार के।-
अहम कम कर के अहमियत बढ़ा लीजिए
दिलों को अपने रंग-ए-उल्फ़त में गढ़ा लीजिए।
इश्क़ और रश्क कहाँ छुपती है इस जमाने में
हो गुमाँ ज़हीन से आंखे अपनी पढ़ा लीजिए।
तेरी बोसीदा नज़र हर वज्म में मुझे तलाशेगी
तलबगार मुझसा नहीं पाओगी ढूंढा लीजिए।
ग़ालिबन तेरी यादों में मुझे पनाह मिल जाए
ये इल्ज़ाम-ए-क़ुर्बत अपने सर मढ़ा लीजिए।
आदत हैं मुझे बातों बातों में रूठ जाने की
ये नखड़े मेरे आप अपने सर चढ़ा लीजिए।-
एक चेहरा मैं जमाने से छुपाए रखा
अपने अच्छे होने का भरम बनाए रखा।
अरमानों की क़िस्तें आँखे चुकाता रहा
ख़्वाब हसरतों के दिल में सजाए रखा।
ठोकरें कल्ब-ए-ख़ेमा में दफ़न होता रहा
गोया मैं सज़दे में सर को झुकाए रखा।
आह न भरी गमों के ख़ार अपने देते रहे
दर्द कितने अपने सीने में दबाए रखा।
तंज़ के कई तीर दिलों के पार होते रहे
बारहा तल्खियों में भी रिश्ता निभाए रखा।-
तुम्हें जल्दी बहुत थी सफ़रे'उल्फ़त से रुख़सत की
एक मैं था मंज़िल-ए-मक़सूद छोड़ने की ज़ुर्रत की।
लिबासों की तरह तेरी जुस्तजू-ए-यार बदलती रही
हमने तो बुतपरस्ती में ज़ुनूनीयत से निसबत की।
अपनी फ़ितरत-ए-हसरत से तू कभी बाज़ न आई
और सौदाई मैं सब समझते भी तेरी सोहबत की।
शक्स यारें'उल्फ़त में वजूदे'हस्ती भी मिटा दे तो
फ़िर भी बेमुरब्बत को लगता हैं क्या मोहब्बत की।-
अजब सी मंज़र हैं अजब से उठते हैं यहाँ बबाल
पर इंसानो के दुर्दशा पे यहाँ कौन पूछता हैं हाल।
भेड़ियां बन के कर रहा हैं इंसानियत का हलाल
सीता की लुटती इज़्ज़त पे कौन उठता हैं सवाल।
जमीर अपना बेच के यहाँ नेता बन गया हैं दलाल
उपर बैठे गांधी सुभाष भी देख के होते होंगे बेहाल।
औरत,मुफ़लिस,मज़लूम,सबकी स्थिति हैं बदहाल
लोकतंत्र की ये स्थिति देख होता हैं सबकों मलाल।
बिक गई हैं न्याय व्यवस्था बिक गया हैं कोतवाल
धीरे धीरे सारे तंत्र-प्रणाली को कर दिया हैं तंगहाल।-