क्या कुछ पौरुष महज एक छलावा है?
जो छलता रहता है वह एक स्त्री को।
उसके मन, तन, भावना और संवेदनाओं को।।
वह छलता है उसे स्वतंत्रता की परकाष्ठा से,
उसके स्वप्नों को पंख लगा खुले आसमां में जी भर उड़ान भरने की बात बता,
पैरों में चाँदी की बेड़ियाँ लगाकर।
वह छलता है उसे प्रेमी के रूप में,
प्रेम मोह में बाँध तमाम हसरतों को पूरा कर देने के वादे कर,
जीवन भर साथ निभाने की उम्मीद लगा,
फिर छोड़ देने के इरादे से।
वह छलता है उसे एक इमदाद के रूप में,
जो छलता है स्त्री के आत्म-सम्मान को,
सूनी राहों में अगुआ बन कर,
कपटी हाथों से उसकी आबरू नोच।
वह छलता है एक स्त्री को अपनी नजरों से,
उसके तन को ढ़के लिबास के अंतरंग दृष्टि डाल,
क्षणभंगुर में उसके आत्मविश्वास को तोड़ कर।
कुछ पौरुष एक छलावा मात्र ही तो है,
जो छलता है एक स्त्री की गरिमा को,
उसके उस पुरुष प्रधान समाज के अनुकूल ना होने से,
उसे चरित्रहीन का तमगा दे कर।
शायद वो कुछ पौरुष महज एक छलावा ही तो है,
जिसने स्वयं को भी छला है,
युगों से अपनी पौरुष के सर्वस्व अधिकार स्त्री पर जताने के गुमान से।।
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