मजबूरियाँ
मुफ़लिसी की थी गहरी
रुक ना पाए
थकते कदम उसके
किसी भी पल
छौने को लिए संग
चली कर अनमना मन
बंधी थी वो ममता से
मिटाने भूख बिलखते बचपन की
धूप की तपन में भीगती
मगर न रखती कोई शिकन
रंगीन चुड़ियों की मनिहारिन
खुद जीती रंगहीन जीवन....
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सोचती हूँ मैं....
कितने
भाग्यशाली,
हो ना तुम,
तुमने चूड़ियाँ
थोड़े ही
पहन रखी हैं,
फिर भी....
मेरे हाथों में
चूड़ियाँ होंगी,
या नहीं
इसका निर्धारण
भी तुम
करते हो।-
कांच सी नाजुक रंग बिरंगी
टूटती बिखरती, बिखर कर सवरती
ढलती किसी भी रूप में
ये जिंदगी भी ना चूड़ियों की तरह होती है।।-
मेरे हाथों में
कुछ चूडियाँ हैं_
कांच की
बहोत खूबसूरत,
और मुझसे भी कहीं अधिक
मुझे आज़ाद करने को बेताब।-
तेरी मेरी इन मुलाकातों में,
तुझसे मिलकर ये चूड़ियाँ,
यूँही तो नहीं खनक जाती!-
चूड़ियों के तो अनेक रंग हैं लेकिन
मेरा दिल इन लाल चूड़ियों पर अटका है।-
श्रृंगारदान में रखी हरी चूडियाँ
आज भी मुझे पुकारती हैं
सूनी कलाईयाँ देख फुसफुसाती हैं
पहनो ना मुझको ,मुझे मनाती है
सोचती हूँ आज पहनूँ इन्हें
क्या इन की खनक की आहट से
तुम मुझ से मिलने आओगे........-
भी अग़र निभाई जाती एक रश्म,
कितना आसान होता फिर चूड़ियाँ तोड़ बेवा हो जाना।-
पुरूषों को इससे तौलो मत,
श्रृंगार स्त्री का रहने दो।
पति से इसको जोड़ो मत,
इसको हाथों में सजने दो।
इसको अर्थों में बांधों मत,
चूड़ी को चूड़ी रहने दो।।
(पूरी रचना अनुशीर्षक में)
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यूं तो महकता है गजरा आज भी बालो में
तुम एक फूल गुलाब का लगाते
तो कुछ और बात होती
यूं तो खनकती है चूडियाँ आज भी हाथों में
तुम खुद कंगन पहनाते
तो कुछ और बात होती
यूं तो सजती है करधनी आज भी कमर पर
तुम बाँहे कमर से लिपटाते
तो कुछ और बात होती
यूं तो छनकती है पायल आज भी पैरो में
तुम आकर चुपके से पहनाते
तो कुछ और बात होती
(माधवी श्रीवास्तव )
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