हो आम मनुज या हो महान, प्रकृति समक्ष सब है समान।
प्रकृति नहीं करती भेद-भाव, वरदान, दण्ड सब एक-भाव।
प्रकृति को माँ मानते तुम, मानवता धर्म जानते तुम।
करते प्रकृति का धन्यवाद, माँ खुद देती आशीर्वाद।
यूं ना होते हम आज विवश, सम्पन्न लोग खुद है परवश।
विकसित होने की होड़ में हम, प्रकृति नकार कर दौड़े हम।
कई युद्धपोत परमाणु बम, केवल विनाश रचते गए हम।
अस्पताल को भुला दिया, खुद अपना फंदा सजा लिया।
जंगल को काट बनाए घर, घर में ही कैद है आज शहर।
क्यों आतुर थे धरा मिटाने को, अब जगह नहीं दफनाने को।
प्रकृति से इतनी जंग लड़ी, कि अंत समय कोई संग नहीं।
बुद्धिजीवी अब तो संभलो, कुछ वक्त को अब घर में रहलो।
छोड़ो विनाश अब ठहरो तुम, जो है जहाँ भी अब रोको तुम।
अपने न सही अपनों के लिए, थम जाओ न कुछ दिन के लिए।
पैसा तो आता-जाता है, हो स्वस्थ्य तभी कुछ भाता है।
यहाँ स्वास्थ्य ही असली सोना है,
सम्हलों.............आगे कई और कोरोना है।।
-अमृता मिश्रा
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