Amrita Mishra   ("अमृता")
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Joined 21 June 2018


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7 MAR AT 21:56

बीते
समय
में हुई कुछ
कमियों की क्षतिपूर्ति
आने वाले वक्त का कोई भी
लम्हा कभी नहीं कर सकता ,
चाहे वह.............किसी दुधमुहे बच्चे
के मुँह से छूट जाने वाला माँ का दूध हो..
या बचपन में ही किसी जवानी तो
किसी बुढ़ापे के हाथों दम तोड़ता बचपन.........!

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25 FEB 2024 AT 0:03

हाथों को किसने जकड़ के रखा हैं
लफ़्ज़ों का अंदर दम घुट रहा है

कानों से ज़्यादा क़लम की तलब है
सुनने वालों से हर दम यक़ी उठ रहा है

जंग सी लग गई है मेरी इस क़लम को
लगता है जैसे कि सब लुट रहा है

ज़ख्म नासूर बन बस चुभे जा रहा है
मारता भी नहीं है ना खुद मिट रहा है..

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29 SEP 2023 AT 19:40

पुण्यश्लोक माता जिनसे
यह धरा आज भी गर्वित है
यह शब्द मात् के चरणों में
सुमन समान समर्पित है।
(शेष अनुशीर्षक में)
- अमृता मिश्रा

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9 OCT 2021 AT 20:31

खोकर  यह  मालूम  हुआ
वो कितना मुझे ज़रूरी था

मां से  जब-जब  दूर  हुआ
हर दिन ही जेठ दुपहरी था

अब चांदी की चम्मच भी है
पर मां का हाथ सुनहरी था

वह बोला पत्रकार है हम
पर काम तो जी-हुज़ूरी था

जात धर्म  से वोट कमाता
हाकिम  ग़ैर - जम्हूरी  था

मैं कोई सनकी आशिक़ नई
मेरा इश्क़ फ़क़त सिंदूरी था

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29 SEP 2020 AT 16:56

कुछ ख्वाबों की आदत होती है
अधूरेपन में ही राहत होती है
तोड़ देते है दम मुठ्ठी में आकर
हथेली को जिनकी चाहत होती है

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12 SEP 2020 AT 17:15

ज़िम्मेदारी बड़ी बखूबी निभाई है ज़रूरतों ने
कि ख्वाहिशों की, दिल को भनक न लगी

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29 JUN 2020 AT 21:57

बचपन में
मेरी नन्ही हथेली से
गिरते मेरे चंद सिक्के,
सबसे ज्यादा महफ़ूज़
होते थे,
माँ के पल्लू की गांठ में,
जिसे कभी कोई
न खुलवा पाया
मेरी मर्ज़ी के बगैर....
और उसी पल्लू में
बांधा था माँ ने,
मेरे बचपन का वो हिस्सा
जो अक्सर
हाथ में बेलन देकर
झोंक दिया जाता है
चूल्हे में......

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18 NOV 2019 AT 11:04

"एक बचपन ऐसा भी"
मुझको बचपन नहीं बचपना चाहिए.....
(पूरी रचना अनुशीर्षक में)

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3 OCT 2019 AT 19:14

अच्छा आदमी था!
(अनुशीर्षक में)

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28 OCT 2021 AT 13:40

भावनाओं की
पूर्ण स्वच्छंदता
माँ और मातृभाषा के
आंचल में ही संभव है

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