Amrita Mishra   ("अमृता")
336 Followers · 33 Following

read more
Joined 21 June 2018


read more
Joined 21 June 2018
25 FEB AT 0:03

हाथों को किसने जकड़ के रखा हैं
लफ़्ज़ों का अंदर दम घुट रहा है

कानों से ज़्यादा क़लम की तलब है
सुनने वालों से हर दम यक़ी उठ रहा है

जंग सी लग गई है मेरी इस क़लम को
लगता है जैसे कि सब लुट रहा है

ज़ख्म नासूर बन बस चुभे जा रहा है
मारता भी नहीं है ना खुद मिट रहा है..

-


29 SEP 2023 AT 19:40

पुण्यश्लोक माता जिनसे
यह धरा आज भी गर्वित है
यह शब्द मात् के चरणों में
सुमन समान समर्पित है।
(शेष अनुशीर्षक में)
- अमृता मिश्रा

-


28 OCT 2021 AT 13:40

भावनाओं की
पूर्ण स्वच्छंदता
माँ और मातृभाषा के
आंचल में ही संभव है

-


9 OCT 2021 AT 20:31

खोकर  यह  मालूम  हुआ
वो कितना मुझे ज़रूरी था

मां से  जब-जब  दूर  हुआ
हर दिन ही जेठ दुपहरी था

अब चांदी की चम्मच भी है
पर मां का हाथ सुनहरी था

वह बोला पत्रकार है हम
पर काम तो जी-हुज़ूरी था

जात धर्म  से वोट कमाता
हाकिम  ग़ैर - जम्हूरी  था

मैं कोई सनकी आशिक़ नई
मेरा इश्क़ फ़क़त सिंदूरी था

-


23 SEP 2021 AT 14:13

कई  सौ  लफ़्ज़  लग  जाए  जहां  तार्रूफ़  कराने  में
तो उस महफ़िल में मिलने के अभी क़ाबिल नहीं है हम

महज़  इक  लफ़्ज़ से  पहचान ले जब भी  हमें  दुनिया
समझना अब किसी भी भीड़ में  शामिल नहीं है हम

-


3 JUL 2021 AT 9:16

यदि एक माँ अपनी संतानों को,
एक बेटी अपने पिता को
और एक बहन अपने भाई को
बता सकती.....
हर रास्ते पर कहे गए
भद्दे अपशब्दों को,
घूरती सैकड़ो निगाहों को,
पीछा करते लड़कों की
बदतमीज़ी को,
भीड़ के अनचाहे स्पर्शों को,
यदि बता सकती कि
घर से निकलकर
घर आने तक
हर रोज़ उन्होंने
एक जंग जीती है,
काश बता पाती
उनके बचपन से लेकर
वर्तमान तक के सारे
यौन शोषण का दर्द,
तो भविष्य में कई
बच्चे और युवा
बचा सकते खुद को
अपराधी और पीड़ित
दोंनो बनने से...
और समझ सकते
पराई पीड़ा.......

-


5 MAY 2021 AT 16:02

"माँ"
(अनुशीर्षक में)

-


22 APR 2021 AT 12:09

हो आम मनुज या हो महान, प्रकृति समक्ष सब है समान।
प्रकृति नहीं करती भेद-भाव, वरदान, दण्ड सब एक-भाव।
प्रकृति को माँ मानते तुम, मानवता धर्म जानते तुम।
करते प्रकृति का धन्यवाद, माँ खुद देती आशीर्वाद।
यूं  ना होते हम आज विवश, सम्पन्न लोग खुद है परवश।
विकसित होने की होड़ में हम, प्रकृति नकार कर दौड़े हम।
कई युद्धपोत परमाणु बम, केवल विनाश रचते गए हम।
अस्पताल को भुला दिया, खुद अपना फंदा सजा लिया।
जंगल को काट बनाए घर, घर में ही कैद है आज शहर।
क्यों आतुर थे धरा मिटाने को, अब जगह नहीं दफनाने को।
प्रकृति से इतनी जंग लड़ी, कि अंत समय कोई संग नहीं।
बुद्धिजीवी अब तो संभलो, कुछ वक्त को अब घर में रहलो।
छोड़ो विनाश अब ठहरो तुम, जो है जहाँ भी अब रोको तुम।
अपने न सही अपनों के लिए, थम जाओ न कुछ दिन के लिए।
पैसा तो आता-जाता है, हो स्वस्थ्य तभी कुछ भाता है।
यहाँ स्वास्थ्य ही असली सोना है,
सम्हलों.............आगे कई और कोरोना है।।
-अमृता मिश्रा

-


15 APR 2021 AT 23:21

जब अंत हो जाएगा
इस सृष्टि का
और जन्म लेगी
एक नई सभ्यता
तब लिखा जाएगा
हमारा भी इतिहास
हड़प्पा सभ्यता की भांति...
तब मिलेंगे उन्हें साक्ष्य
हमारे विद्यालयों की पुस्तकों के
और लिखेंगे वह....
कि इस काल मैं
नई पीढ़ी को उनके इतिहास के
ज्ञान-विज्ञान , गौरव और
उपलब्धियों को नहीं, वरन
अनिवार्य था
उसे नष्ट करने वाले लोगों और
उनके वंशजों को पढ़ना...
मुझे संदेह है कि, शायद
वह हमें हड़प्पा सभ्यता की भांति
एक सभ्यता कहना भी
उचित न समझें.....।

-


13 APR 2021 AT 11:13

हथियारों का विकास
तब आवश्यक हुआ
जब मानव अपनी
मानवता खोकर बना
जानवर....
अन्यथा पशुओं के लिए तो
आदिमानव के बनाए
पत्थर के औजार ही
पर्याप्त थे.......।

-


Fetching Amrita Mishra Quotes