रात की ख़ामोशी को चीर कर एक नज़्म चुपके से बाहर आना चाहती है अहसासों की स्याही में लिपट कर काग़ज़ पे बिछ जाना चाहती है। दे दूँ इसे कुछ ज़िंदा अल्फ़ाज़ भर दूँ इसमें कुछ चुनिंदा अहसासात कि इन्ही हरफ़ो से ही तो होनी है कल पहचान मेरी।
वक़्त कितनी जल्दी बीत गया, अफसोस तो है , पर वक़्त का यूँ बीत जाना, उन चुनिंदा पलों को और भी खूबसूरत बना देता है कि दिल चाहता है वहीं ठहरने को, उसे ही याद करने को, उसे एक बार फिर जीवंत करने को। काश!