सोच रहे हैं शेर क्या लिखें ,
आफताब लिखें या महताब लिखें !
चश्मे-आब तो बहुत लिखे,
चलो अब ज़रा सा इताब लिखें !!-
अब आओ तो
रक्खा क्या है,
चश्मे सारे सूख गए हैं
यूँ चाहो तो आ सकती हो
मैंने आँसू पोंछ लिए हैं!-
कितनी क़ातिलाना आँखें हैं उसकी...??
अच्छा हुआ, ज़ो चश्में के पीछे ढँक गई...!!
वरना, कितने ओर को घायल करती...??-
दर्द के समन्दरों से कई आंखें भरी पड़ी हैं,
यूँ ही नहीं काले चश्मे बिक रहे बाज़ारों में।-
है क्या...
अब कुछ कहने को बचा न रंजिश-ओ-गिला
मुहब्बत का यही आख़िरी इम्तिहान है क्या।
मानता ही नहीं फिर ऐतबार किया
अपना दिल अब भी कुछ नादान है क्या।
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तुझे शिकायत थी बहुत बोलती है मेरी आँखे
लो सनम अब ना छेड़ेंगी तुझे मेरी आँखें !
छुपा ली है चश्म - ए - तर के पीछे
तुम्हारी खातिर मैंने अपनी आँखें !!-
आँखों पे चश्में लगाकर,
ख़ुद को और क़ातिलाना कर देती है
नख़रे तो देखो उनके,
देखते ही घायल कर देती है..!-
निग़ाहें अगर बयां कर देतीं दिलों पे लगे ज़ख्म,
तो बिक्री बढ़ जाती काले चश्मे की।-
जब वो मोहब्बत में होते है शुमार
करते हैं वो दीदार चश्मे ए यार का
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अंधविश्वास का चश्मा पहन के दुनिया देखोगे
तो सब कुछ गलत ही दिखेगा
मन की आँखों से देखोगे
तो सब सही नज़र आएगा-