महाभारत के चक्रव्यूह सा है तुम्हारा प्रेम,
इससे निकलना असम्भव सा लगता है।-
मनुष्य एक बहुत बड़ी, चक्रव्यूह में फंसा हुआ है!
जैसे अभिमन्यु चक्रव्यूह में, फंस कर ही अपनी जान दे दी!
वैसे ही, मनुष्य सिर्फ अपनी जान दे रहा है!
चक्रव्यूह की प्रथम द्वार को भी, तोड़ नहीं पा रहा!
बस यहां फर्क इतना है, अभिमन्यु को भीतर जाने की ज्ञान थी!
परंतु चक्रव्यूह को भेद कर, बाहर आने की ज्ञान नहीं थी!
किंतु मनुष्य को हर द्वार की ज्ञान है!
परंतु पर्दे की वजह से, वो उस द्वार को देख नहीं पाता!
इन परदों को हटाने के लिए, बहुत महान पुरुष जन्में!
पर मेरे विचार में वह सारे विफल रहे!
चाहे वो महावीर हो, चाहे बुद्ध हो, चाहे यीशु हो, चाहे मोहम्मद हो, या हो कृष्ण, और राम या कोई भी साधु आत्मा!
विफल होने का तात्पर्य यह नहीं, कि वो असफल रहे!
वो तो परमधाम, परम ज्ञान, और स्वयं परमात्मा को पाएं!
पर किसी के भीतर घुस कर, उनकी परदों को कैसे हटाते?
उस संज्ञान में, वो भी विफल रहे है!
पर्दे तो आपके आंतरिक घरों की, स्वयं हटाने हैं!
खिड़कियां तो आपके आंतरिक घरों की, स्वयं ही खोलनी है!
जिस चक्रव्यूह की रचना में, आप फंसे हैं! उन सभी द्वारों तक, खुद ही पहुंचना है!
और पहुंचे हुए हैं आप! बस दरवाजे को धक्का देना है!
फिर आप स्वतंत्र होंगे, फिर आप इस संसार को खुद के अंदर पाएंगे!
ना कि आप, संसार में खुद को पाएंगे!-
साध लक्ष्य को उर पथ पर,
नगपति सम तुम धीर धरो।
निज जीवन के चक्रव्यूह में,
"अभिमन्यु" जैसा वीर बनो।।-
।। चक्रव्यूह...।।
आयु नहीं साहस लिखता है
रणभूमि का सार ।
वीर वही जो सुधि मन साधे
करे शक्ति विस्तार ।।
(अनुशीर्षक में पढ़ें)-
सब काबिलियत सब कामयाबी
यहीं रह जानी है एक दिन यहां जहां में
यह सिलसिला चलता रहेगा। पर भोगना तो वो है जो भोगने के लिए भेजा है तुम्हें यहां उस परमात्मा ने चाहे हंसकर भोगले चाहे रोकर भोगले। एक समय आएगा जब मोक्ष भी प्राप्त हो जाएगा जिस समय अंतरात्मा आनंद में आनंदित होगी बिना किसी दुविधा के उस समय मोक्ष भी प्राप्त हो जाएगा।-
गर्भ से अधिक, मानसिकता की जटिलता का,
माता-पिता के प्रेम, त्याग, संरक्षण का,
रूढ़ि बद्ध धारणाओं, अनंत अपेक्षाओं का,
जीवन साथी के, बिलकुल विपरीत स्वभाव का,
ससुराल के अनजान, अभेद्य से परिवेश का,
‘अपनों’ के लिए, आत्मसम्मान, आकांक्षाओं, ‘स्व’ का,
भेद ही लेती है, ‘वो’ अपनी शूरता से,
चक्रव्यूह के छह असंभव व्यूह..
परंतु अंतिम व्यूह.....अभेद्य ही रहता है....
‘संतान मोह ’ का !!!
और बन जाती है ‘वो’........ ‘अभिमन्यु’...!!!!-
तोड़ती हूं अभेद्य दूर्ग
अपने ही बनाए
उस चक्रव्यूह की
जिसे प्रवचंनाऐं
मेरे चारो ओर किलेबंदी
की गुप्त योजना
के तहत निर्माण कर लेते हैं।
धैर्य की सीढ़ियाँ
स्वत:
दुस्साहस का परिचय देकर
कटु आलोचना के
हिमालय को
ढाहने की प्रक्रिया
आरंभ कर देती हैं।
प्रीति
-
संघर्षो की समर भूमि में हमसे पूछो हम कैसे हैं
काल चक्र के चक्रव्यूह में हम अभिमन्यु जैसे हैं-
चक्रव्यूह रचने वाले सब अपने ही होते हैं,
कल भी यही सच था और आज भी,-
हमारी जिंदगी भी एक चक्रव्यूह की तरह है
जहां एक और हम खुद की समस्याओं से
घिरे हुए हैं वहीं दूसरी ओर हम दोहरे चरित्र
के लोगों से घिरे हुए हैं,-