Vivek Shukla   (विव)
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Joined 22 July 2018


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Joined 22 July 2018
5 OCT 2022 AT 12:08

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22 NOV 2020 AT 18:30

पीर...

सत्य मैं यह जानता हूँ
अनमनी तुम क्यों खड़ी हो
दूर करती हाथ मेरा
दे रही पीड़ा बड़ी हो।

स्नेह के जो नर्म धागे
कर दिए तुमनें विफल हैं
अश्रु क्यों न धर्म छोड़ें
नेत्र ही यदि ख़ुद विकल हों।

आज मैं विचलित बड़ा हूँ
दे रहा अभिशाप तुमको
सर्पिणी के सामने पर
विष कहाँ कैसे सफल हो।

प्रेम में यदि प्रीति न हो
प्रेम का संताप कैसा
वासना की इस डगर में
नाम तेरा अब अमर हो...

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12 AUG 2019 AT 9:51

लफ़्ज़ों में भाई कहता है पर ईद में गले नही मिलता,
इशारा है, इशारा रिश्तों में मिलावट का सबब बनेगा।

काशी की इबादत और काबा की ख़िलाफ़त करता है,
सियासत है, सियासत मज़हब में अदावत का सबब बनेगा।

दोस्त हूँ तेरा, सरपरस्त भी हूँ, फिर क्यों पाकिस्तानी?
अगल़ात है, अगल़ात सरपरस्ती में गिरावट का सबब बनेगा।

अज़ीम शहादतें हैं तेरी पर मैं भी जला हूँ कर्बला में, मुल्क सिर्फ तेरा?
इज़्तिराब है, इज़्तिराब गुफ़्तगू में मुखालिफ़त का सबब बनेगा।

मेरे ग़म में तू खुश होता है, डराता है दबाता है, शिरकत नही करता,
धुआं है, धुआं जमहूरियत में बगावत का सबब बनेगा।

अफ़सुर्दा हूँ इनाद नही, मुंसिफी से आदाब तो कर गले तो लगा,
इंसानियत है, इंसानियत अऱ्ज में ऐतबार का सबब बनेगा।।

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20 JUL 2019 AT 16:38

वो आँखों का पानी, अधूरी कहानी

(अनुशीर्षक में पढ़े)


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13 JUL 2019 AT 9:28

कुछ अधबुने सवाल और अधबुनी सी जिंदगी

(अनुशीर्षक में पढ़े)


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7 AUG 2021 AT 16:49

क्यों जाओ मुझको छोड़ ?

घटा छा रही भूरी-कारी
पावस यूँ भरता किलकारी
नाच रहा मन, नाच रहे खग, नाच रहें है मोर
पिया! क्यों जाओ मुझको छोड़ ?

(अनुशीर्षक में पढ़ें)

--विव

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25 JUL 2021 AT 19:47

क्यों मेरा मन घबराता है

एक स्वप्न में चित्त मुस्काया
दूजे ने फ़िर है भरमाया
स्वप्न एक हो, या दूजा भी
केवल कल्पित रह जाता है।

क्यों मेरा मन घबराता है...

ज्ञान, धर्म में जीवन पाया
क्रोध विवश हो कुछ झुलसाया
धर्म, ज्ञान या हो क्रोधाग्नि
सदय मनुज ही फल पाता है।

क्यों मेरा मन घबराता है...

रिश्तों को हमने अपनाया
कुछ टूटे, कुछ है समझाया
कितने रिश्ते, कितने नातें
साथ कहाँ कोई जाता है।

क्यों मेरा मन घबराता है...

क्रय-विक्रय में धन उपजाया
विधि, भाग्य वश यहीं गंवाया
हो धन्ना या धन कुबेर भी
धरा यहाँ सब रह जाता है।

क्यों मेरा मन घबराता है...

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23 JUL 2021 AT 23:13

रंगमंच...

जीवन का ताना-बाना है
वृथा भाव क्यों घबराना है
रंगमंच के पात्र सभी हैं
अभिनय कर फ़िर उठ जाना है।

धर्म, कर्म और वेद यहीं है
ज्ञानी जन ने यह माना है
माटी का उपकार बहुत है
मानवता को अपनाना है।

सुख-दुःख तो ऋतुओं के जैसा
बीत गया कल फ़िर आना है
सूर्य वही है, चंद्र वही है
चंचल मन को समझाना है।

कुंठा भर प्रतिशोध न रखना
नीर बहे तो यह जाना है
असफलताएं भी फलती हैं
अभिनेता ने पहचाना है।।

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22 JUL 2021 AT 14:29

अनुभव...

मत लिखना तुम क्रोध विवश हो
निश्छल मन मापों गहराई

निज कुंठा पहले है दिखती
व्यर्थ सदा फ़िर पीर पराई...

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21 JUL 2021 AT 14:55

अहसास...

यदि लिख रहे हो तुम, अच्छा है
परंतु
कितना अनुसरित, कितना सच्चा है?
अतः
निकलेगा वही, जो तुम हो
शब्दों में ढलता
लेख नहीं, तुम्हारा बच्चा है...

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