वो सौंधी सी खुशबू, जो मुझे अपने रंग में रंगी रखती हैं,
अपने एहसास में मुझे, कुछ इस तरह भिगोये रखती है,
दूरियां कितनी भी हो, मुझे कभी अलग नहीं होने देती,
मेरे तन-मन को शुद्ध एवं स्वच्छ बनाये रखती हैं,
वो सुंदर,शीतल, स्वच्छ मेरे गाँव की मिट्टी
जो मुझे हरपल अपनी याद में मुझे जिंदा रखती है...
मेरे गाँव की भूमि... मेरी मातृ भूमि..!!-
॥ गांव ॥
सौंधी खुशबू मिट्टी की, पीपल की वो छाँव
छोड़ आए पीछे बहुत, प्यारा सा वो गाँव
हर पल भागती ज़िंदगी में, बनते नए पड़ाव
भागते लोग शहरों की ओर, सुने हो गए गाँव ।।
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हमारे गाँव में तुम भी, कभी तो घूमने आओ।
हवा के संग बागों में, जरा तुम झूमने आओ।
मिलेगी हर खुशी तुमको जहाँ भी पग बढ़ाओगे-
बहुत पावन यहाँ की भू, इसे तुम चूमने आओ।
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जीते हैं हम हर इक लम्हा बीती हुई कहानी को,
भूल कहाँ पाता है कोई अपनी मिट्टी, पानी को।
दीपक की टिमटिम में भी अपनों के रौशन चेहरे,
मात दिया करते हैं अक्सर शहरों की नूरानी को।
उन गलियों की जिनमें बचपन के प्यारे लम्हे गुज़रे ,
सीने से लगा के रखा जिसने सारी नादानी को।
माँ के हाथ की चुपड़ी रोटी,बाबा के काँधे पर मेला,
भूल न पाया खेत,मेड़, बहते दरिया की रवानी को।
फानी दिल ने सँजो के रखा इश्क-ए-जावेदानी को,
याद आज भी आती उसकी कह देना दीवानी को।
ख़ुद को बहला भी लूँ पर दिल को कैसे बहलाऊँ?
याद करूँ तो रोक न पाता आँखों से बहते पानी को।
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गाँव में एक घर इसका भी है पर अब खाली है
जब से बच्चों ने शहर में नया मकान ले लिया-
जन्म भूमि वो गाँव की मिट्टी उससे तिलक करते हैं हम,
मन के हर कोने में गाँव के हर कोने को रखते हैं हम।
पाल रहीं हर क्षण जीवन को उसको ही जीवन दे जायें,
पूरा जीवन न्योछावर हो उसपर उसके खातिर मर जायें ।
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आज-कल लगता है, कि वो दौर अब रहा नहीं है
जब दो जून की रोटी में खुश हो जाते थे हर कोई-
मजदूरिन की बात ही अलग हुआ करती है यहाँ पर
कितने घण्टों कीचड़ में रहने के बाद मुनाफ़ा मिलता है-