Shilpa Sony:)   (अनगढ़ शिल्प©)
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Joined 17 September 2019


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Joined 17 September 2019
21 APR AT 17:39

अंबर की हथेली से फिसल गया सूरज
सागर की पनाहों में पिघल गया सूरज।

हमदम तेरी शोला ए मोहब्बत का शरर,
देखा तो मारे रश्क के जल गया सूरज।

अब तक क्यों रुलाती हैं बीती हुई बातें,
खिड़की से तो देख बदल गया सूरज।

तारों को हुकूमत करनी थी सबा पर,
जाहिर था कि नजरों में खल गया सूरज।

दीद उठीं उनपर तो पलकें हीं झुका ली,
आंँखों से यूंँ बच कर निकल गया सूरज ।

मिलने को तरसती रहीं हरदम ये निगाहें,
दफ्तर की हीं फाइल में ढल गया सूरज।

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18 APR AT 21:04

विलीन होता शुन्य में
मिट रहे हैं द्वंद सब
गति है मंद श्वास की
कट रहे हैं फंद सब
चमक रहा सहस्त्र दल
मैं हूंँ प्रभा के लोक में
न भेद अब रहा कोई
प्रमोद में या शोक में
जनम मरण से मुक्त हो
अनंत आकाश हूंँ
न मन न बुद्धि, देह मैं
चेतन प्रखर प्रकाश हूंँ

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18 APR AT 16:47

एक जरा ख़लिश हुई
रो पड़ी चांँदनी
नज़्म की लड़ी कोई
भीगो गई रागिनी
हृदय में वेदना अतल
गिरी से बोझिल श्वास हैं
न छेड़ लड़ियाँ गीत की,
कि दिल बहुत उदास है।

जरा सी एक बात पर
सिसक के नैन बह गए
अधर के मौन बिंदु भी
सिंधु जितना कह गए
कोई तो लौ जले कहीं
कि मन बहुत निराश है
न छेड़ लड़ियाँ गीत की,
कि दिल बहुत उदास है।

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18 APR AT 16:08

गए थे तुम जहांँ पर छोड़ करके,
कहानी रख दी मैंने भी वही पर मोड़ करके।

वो घर बंँटने पे सहसा रो पड़ा था
कभी जेवर लगे थे मांँ के जिसमें तोड़ करके

यूंँ ही छूती नहीं कोई गजल धड़कनो को
कई सांँसे लगा करती हैं इनमें जोड़ करके

कली से फूल होने में तो एक अरसा लगा
कोई बस यूंँ ही तो बिखरा गया था तोड़ करके

जिसके दायरे में सिमटी तेरी खामोशियांँ भी
भला क्या वजह है उसके ही जानिब शोर करके

उतर जाएंँगे दिल से वफ़ा के रंग सारे
नहीं कुछ फ़ायदा है इस कदर इग्नोर करके।

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18 APR AT 13:19

वो मीत, प्रीत, फाग या वो गुलाल फिर लौटा सकोगे
अटखेलियांँ, खुशदिली वही हाल फिर लौटा सकोगे
बदल जाएगा कितना कुछ बदलते वक्त के ही साथ
वो तारीख तो आएगी पर वही साल फिर लौटा सकोगे

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18 APR AT 12:58

संगी की भी है सीमाएंँ , हरदम का ना कोई रेला है
सागर की उपमा पाने को सरिता ने क्या क्या झेला है
एक तुनुक बीज भी मिट्टी में ख़ुद ही तो जूझा करता है
जीवन के निर्णायक क्षण में रह जाता मनुज अकेला है

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10 APR AT 19:00

प्रेम आता है ऐसे
जैसे सीली सर्द रातों की ठिठुरन भरी बेखबर नींद में
पाँवों पर सरकी चादर को
कोई हौले से देह ढाँप कर ओढा जाए ।

इसके पदचिन्हों में विद्यमान हैं
नैनो टेक्नोलॉजी के वे गुण
जिसपर भौतिकी के सारे नियम हो जाते ध्वस्त।

इसकी आहट में छिपी है
मेघदूत के पृष्ठों में कसमसाती यक्ष की वह तड़प,
जिसकी वेदना सुन सुदूर घुमड़ते बादल भी संदेशी बन जाएंँ।

प्रेम आता है ऐसे जैसे आता है दूज का मृदुल चांँद
अपनी महकती पाती में लेकर
संदेशा ईद का ।

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27 MAR AT 12:46

इतने सहज होना
जितनी होती है मांँ की थपकी ।
इतने मामूली जितना होता पानी
इच्छित नहीं परम आवश्यक।

इतने कोमल जितने अलविदा कहते समय
आंँखों से ढुलकते अश्रु बिंदु।
इतने सार्थक जितनी प्रेम में लिखी गई
त्रुटिपूर्ण शब्दों की कविता ।
इतने वास्तविक जितना
झुर्रियों में लिपटा अनुभव का चेहरा।
इतने दृढ़ जितनी छालों से भरे होठों पर
विद्रोही हृदय की खेलती मुस्कान ।

इतने सरल होना जितना सरल है ईश्वर का पता
मिलना बस उसी को,जिसे सचमुच तुम्हारी चाह हो।

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21 MAR AT 17:29

एक पेड़ को काट कर
वहांँ की मिट्टी को पाट कर
सीमेंट की पलस्तर कर
बनाकर सुकून का घर

लकड़ी की मेज पर
लकड़ी के पेज पर
काठ की पेंसिल से
लिख रहे तह–ए–दिल से

"बनिए अब तो थोड़ा जिम्मेदार"
"वृक्ष ही है जीवन का आधार"

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19 MAR AT 19:36

न वो पहले–सी रौनकें
ना हीं पहले–सी बात होती है
ठहर कर रह गई यादों में
बस ख्वाबों में मुलाकात होती है।

वो जो दिल के थे क़रीब
लगते किसी अजनबी –से
कभी खत्म न होती थी बातें
अब झिझक से शुरुआत होती है।

गूंँजती थीं‌ कहकहों से
अक्सर जो दर– ओ– दीवारें
विरानियों में गुफ़्तगू अब
बस दरिचों के साथ होती है।

टूटना चाहती भी खामोशियांँ गर
दरमियांँ रह जाती एक ख़लिश
जीत जाती है हरबार अ़ना
जज़्बात की मात होती है।

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