सुनो साहिबा... ना मैं ठहरी हुँ और ना ही.. मैने बाँधने की कोशिश की है कभी.. तुम्हारे साथ गुजारे वक्त को रूकने नही दिया मैने कभी.. मेरे साथ साथ चल रहा है मुझमे शामिल है वो आज भी... रूकने का मतलब उदासी होती है.. इसलिए चल रही हूँ लम्हों के साथ आज भी। मैं कुछ भी रोकना नही चाहती उदासी को पालना नही चाहती.. जी लेती हूँ उन लम्हो को जो गवाह थे हमारी दोस्ती की। अब जब कभी तुम आओगे मुझे उदास नही पाओगे.. कोई तन्हाई नही होगी साथ सिर्फ एहसास होगे तुम्हारे मेरे आसपास। मैं रूकी नही चल रही हुँ उन एहसासों के साथ -साथ.. के तुम आओगे एक दिन इस इंतजार और यकीन के साथ। आओगे ना. साहिबा..??
वो कहते है बच्चो सा बचपना है तुममे ,,,,, हम कहते है बड़े होकर क्या करना है,,,,, नफरत, ईष्या, देव्श ,,,,,,, इससे अच्छा तो बचपना ही अच्छा ,,,,,, जहाँ प्यार ,अपनापन और खुशियों का अंबार होता है ।
तुम्हारी दुआओं का असर हुआ है तभी से इश्क़ मेहरबां हुआ है मंजिल दूर नहीं पर सफर दूर है खामोशियों से एक तूफान उठा है लवों से तेरे हर शिकवा मिटाकर खुशी की बगिया लगाने आऊंगा
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