ऐ जिंदगी सुन क्यूँ मुझे, तूँ ऐसे बेताब करती है
कोई ऐब है क्या मुझमें, जो इतना हिसाब करती है।
क्यूँ सहम रहे हो तुम, सिर्फ एक नाकामी के डर से
राह-ए-मुश्किलें ही तो, इंसान को कामयाब करती हैं।
धोखा खाकर आये हो,चलो महफ़िल जमाते हैं
गम भुलानें का काम तो, दो घूट शराब करती है।
एक जुगनूं को वहम हो गया है, उजाले पे हुकूमत का
उसे कौन समझाये कि, रोशनी तो आफताब करती है।
दोस्ती किताबों की, कभी दगा नहीं करती "नवनीत"
ये तो हिस्से में तुम्हारे, यूँ सारे खिताब करती है।
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