अपनी तक़दीर पर यार रोते हो क्यों
बे-वफ़ा के लिए ख़ाक होते हो क्यों
जिनकी क़िस्मत में सूरज नहीं सुबह़ का
ख़्वाब आंखों में ऐसे संजोते हो क्यों
मोम का जिस्म है तुम पिंघल जाओगे
आतिश-ए-इश्क़ में ख़ुद को झोते हो क्यों
चाहते हो जो परवान नस्लें चढ़े
तुख़्म-ए-कीना,कपट, ख़ार बोते हो क्यों
बरकतों की त़लब भी है गर तो 'ह़यात'
दिन चढ़े तक बताओ यूं सोते हो क्यों
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