ये भी धोखा रास्ते के बीच में खाना पड़ा
हम मुसाफ़िर थे कहीं के और कहीं जाना पड़ा
ख़्वाहिश-ए-दिल हाय कैसे नज़र-ए-क़िस्मत हो गई
जो पसंद आया, फ़क़त इक वो ही ठुकराना पड़ा
सब जवाँ होने से पहले मर गईं ऐ ज़िन्दगी
जाने कितनी ख़्वाहिशों को दिल में दफ़नाना पड़ा
हम वो गुल हैं जिनकी क़िस्मत में बहार आई नहीं
जब्र-ए-तूफाँ से हमें बे-मौत मर जाना पड़ा
हो गया सर वक़्त से पहले सफ़ेदी का शिकार
साँस लेने पर ये हाय कितना जुर्माना पड़ा
कर दिया था हमको पागल पहले ही तन्हाई ने
रास्ते के बीच फिर इक और वीराना पड़ा
फिर मुह़ब्बत में हुए हैं अजनबी हम ऐ "ह़यात"
जिस जगह से इब्तिदा की फिर वहीं आना पड़ा-
फिर न तड़पाएगी ये रात चलो साथ चलें
तुम पकड़ लो न मेरा हाथ चलो साथ चलें
साथ चलना ही बस इक ह़ल है मसाइल का सनम
सब बदल जायेंगे ह़ालात चलो साथ चलें
सामना इसका अकेले नहीं कर पाऊंगा
तेज़ होने लगी बरसात चलो साथ चलें
वहशत-ए-उम्र-ए-रवाँ क़हर-बपा है यूँ भी
चाहता हूँ मैं तेरा साथ, चलो साथ चलें
ज़िन्दगानी का सफ़र तन्हा कटा है किससे
मान जाओ न मेरी बात चलो साथ चलें
कितने बेताब हैं मिलने को बिछड़ कर फिर से
देखिए अर्ज़-ओ-समावत, चलो साथ चलें
शब-ए-हिजराँ के सितम टूट पड़ेंगे तुम पर
होगा मुश्किल गुज़र-औक़ात चलो साथ चलें
दूरियाँ, फ़ासले, रंजिश, कि मुसावात "ह़यात"
हैं बिछड़ने की अ़लामात, चलो साथ चलें-
ग़ौर कीजिए साहिब, कुछ तो है कहानी में
ख़ुश्क हो गई रंगत जो भरी जवानी में
ऐ ख़ुदा ज़रा हमको बचपने में पहुँचा दे
कश्तियाँ चलानी हैं बारिशों के पानी में
मुफ़लिसी के आंगन में खो गई खुशी यारो
बह गए हैं अरमाँ भी वक़्त की रवानी में
हुस्न ए ज़न के क़ायल हैं शैख़ जी, सुना हमने
आ गये हैं फिर कैसे आप बदगुमानी में
जो है तेरी नज़रों में पाँचों उंगलियाँ यक्साँ
आ गये हैं फिर हम भी इस ग़लत बयानी में
शे'र हर कोई समझे, है "ह़यात" ना मुमकिन
वाक़िआ़त मख़्फ़ी हैं शे'र के मआ़नी में-
सोचेंगे तुम्हें, सोच से, हारा नहीं कोई
इस काम में वैसे भी ख़सारा नहीं कोई
तुम ख़्वाब लिए आई यहां किस के भरोसे
ये दुनिया है और उसमें तुम्हारा नहीं कोई
डूबोगे सो फिर डूबे चले जाओगे इसमें
ख़्वाहिश के समंदर का किनारा नहीं कोई
मतलब के लिए पीछे बड़ी भीड़ लगी है
हर सम्त हैं कंधे प सहारा नहीं कोई
ये इश्क है, और इश्क की सर सब्ज़ ज़मीन पर
मौसम के बदलने का इशारा नहीं कोई
चढ़ जाओ भले प्यार की कश्ती पे मगर हां
इस नाव ने उस पार उतारा नहीं कोई
मौत आई तो हर हाल मरना ही पड़ेगा
अब इसके अलावा भी तो चारा नहीं कोई
डूबा हूं मैं इस दर्जा "ह़यात" अपनी अना में
दौरानि ए वह़शत भी पुकारा नहीं कोई-
मैं गुलों का हार भी समझा गया
बाद में बेकार भी समझा गया
मस्लिह़त के तह़त मैं ख़ामोश था
ये मेरा किरदार भी समझा गया
मर मिटा मैं ही वतन के वास्ते
मैं ही फिर ग़द्दार भी समझा गया
हां, मुक़द्दर भी सही , पर अस्ल में
इश्क़, कारोबार भी समझा गया
ख़ुद ही खुश हूं ये भी तो समझा किए
ख़ुद से ही बेज़ार भी समझा गया
ख़ुल्द से आए हुए इंसान को
इक ख़ता पर ख़्वार भी समझा गया
पहले दुख सहने का फ़न सिखला गए
फिर सितम फ़नकार भी समझा गया
बे मुरव्वत, बे वफ़ा, फिर ऐ "ह़यात"
हाय मुझको बार भी समझा गया-
ऐ़न मुमकिन था कि टलने का तक़ाज़ा करते
हम जो तुम होते तो चलने का तक़ाज़ा करते
ये तो अच्छा हुआ बंजर हुई आंखें वरना
अश्क होते तो निकलने का तक़ाज़ा करते-
क्या लिक्खें इस ज़मन में, हैं यानी किराये-दार
होते हैं ज़िन्दगी के मआ़नी किराये-दार
तुम, ख़ुद को चीख़-चीख़ के ला-फ़ानी मत कहो
बिन बोले कह रही है कहानी किराये-दार
कब जाने कौन मोहरा हो, अपनी तो बात क्या
राजा किराए दार है रानी किराये-दार
फ़ानी की ही दलील है, दौलत के बा-वजूद
नीता किराए दार, अडानी किराये-दार
तू भी तो छोड़ जायेगा इसको "ह़यात" सो
बे-कार है ये चर्प-ज़ुबानी, किरायेदार-
लूंगा भी अगर जाम सर-ए-शाम न लूंगा
हारे हुए इस दिल से कोई काम न लूंगा
मुकम्मल नज़्म कैप्शन में है-
मुकम्मल नज़्म आने वाली है
मुमकिन है कि इस बार मैं इस दिल को मना लूं
मुमकिन है तेरे नाम का कुत्ता भी न पा लूं-
ये बात अलग है कि ख़ुलासा नहीं होता
वरना तो सियह रात में क्या-क्या नहीं होता
अब प्यार की आँखें भी निकल आई ग़रीबों
अब इश्क़ तो होता है पर अंधा नहीं होता
होते हुए देखा है मुकम्मल वही अक्सर
जो ख़्वाब कभी हमने सजाया नहीं होता
मंज़िल की अगर चाह है तो चलिए मुसलसल
इस दौर में ऐ दोस्त करिश्मा नहीं होता
हर मोड़ पे मिल जाती है वैसे तो मुह़ब्बत
पहले सा मगर इश्क़ दुबारा नहीं होता
ऐ काश समझ जाते सियासत के इरादे
तो शहर में ये ख़ून-ख़राबा नहीं होता
यानी के हैं तक़दीर से हारे हुए हम लोग
डूबें भी तो तिनके का सहारा नहीं होता
ह़क़ पर हूँ "ह़यात" इस लिए चलना है अकेले
तुम जैसा अगर होता तो तन्हा नहीं होता-