काली रात के साये ने जब मुझे चारो ओर से घेर लिया था.....
तब तुमने ही उम्मीद की किरण दिखाई...
ज़िन्दगी की हार ने इतना लाचार कर दिया था कि फूलों से भी चुभन महसूस होने लगी ....!!!!
खुद अपनी ही परछाई से मैं डरने लगी थी ....
तुम्हारी दस्तक से ज़िन्दगी ऐसे सवरने लगी जैसे मेरी आज़ादी को तुम्हारी ही तलाश थी......
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मौत से पहले न जाने कितने मासूमों ने जान गवाई थी,
यह वो काली रात है, जो भोपाल में उस दिन आई थी।।-
अगर तुझे पा लूं तो क्या होगा?
चार दिन की चांदनी, फिर काली रात
सच यही है दोस्तों,
ऐसी ही होती है इश्क़ की जात।-
यौरकोट मेरी ज़िंदगी की वो काली रात है
जहाँ मैं सितारा बन चमका था कभी-
कितनी पाक है ये निवाले के लिए सिर्फ़ जिस्म बेचती है साहब...
कुछ ऐसे भी हैं यहां जो अय्याशी के लिए मुल्क तक का सौदा कर लेते हैं...-
एक काली काली रात के समान है उसकी यादे
जो हर रोज बिन बुलाए मेरे जेहन मे आ जाती है।।-
अकसर विरह की काली रातों में
तेरी यादों की बारिश में नहा लेती हूँ-
जिंदगी है सागर की लहरों की तरह
डूबे तो भी मृत्यु ना डूबे तो भी मौत
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आंख लगते ही सारे मृत किरदार जीवित होने लगे। घोड़े की टापों की आवाज, तलवारों लड़ने की खनखनाहट, चीख-पुकार, लहू में लथपथ मृत शरीर
किले का टूटता दरवाजा। सैनिकों का क़िले में प्रवेश स्त्रियों का रुदन।नहीं.....
ये नहीं हो सकता,आयुष चीख रहा था।
गला प्यास से सूख चुका था। तेज हवा के झोंके से बजते खिड़की के दरवाजे। सुनसान काली रात,दूर दूर तक सिर्फ सन्नाटा। ये क्या देखा मैंने? क्या ये सच था?हजारों सवाल तैर रहे थे आयुष के दिमाग में, पर जवाब फिलहाल कोसों दूर था। अब आयुष पूरी तरह चैतन्य हो चुका था। हालांकि चेतना का दृश्य सपने से बिल्कुल अलग था।फिर भी सपने की सिहरन अब भी बाक़ी थी। हालांकि आयुष को विजयगढ़ के किले पर लिखने को काफी कुछ मिल चुका था। आयुष को याद आ रहा था कि सोने से पहले उसने यहां की अदृश्य शक्तियों से मदद मांगी थी।
सिद्धार्थ मिश्र-