दि कु पां   ("दि कु पा उर्फ़ बीनू..")
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Joined 15 December 2020


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23 APR AT 20:35

ना इल्ज़ाम मेरे किरदार पर लगाओ
कि दोस्तों तुमको तुम सा ही चाहता बहुत हूं..
कि मेरे अफसूर्दा के कारण तुम्हें न मालूम हैं
न बता तुमको भी अपनी अफ़सुर्दा में शामिल कर
तुम्हारा मौज़ू-ए-सुखन ना छीनना चाहता हूं...

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20 APR AT 10:15

आज का ज्ञान
उभरते बच्चो के लिए


कभी हमें भी बोला जाता था पर तब बाप मतलब दोस्त नहीं बाप होता था.. आज परिस्थितियां बदली हैं

मां बाप से बड़ा कोई दोस्त नहीं..

शेष अनुशीर्षक में पढ़े..

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19 APR AT 14:09

यदि इंसान है तो भावनाएं होंगी
भावनाओं होंगी तो इज़हार होगा
इज़हार माफिक भी हो सकता और नही भी..
और आपका हित चाहने वाला होगा तो बोलेगा ही..
और बोलना ही उचित है मौन हो अनुसरण करना तो रोबर्ट हो गया...

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रिश्तों का स्वाद तभी आता है
जब प्रीत मेरी हो तो प्रेम तेरा हो..
वरना ढोता रहता है एक बेचारा
अहमियत समझ रिश्तों के जज्बों की..
जब इंतिहा हो जाती है इकतरफा जज्बोंं के सहने की
तब टूट बेजान हो सुख जाते है वो ज्यों पतझड़ में
बिछड़े साख से
हालात होती है पत्तों की..

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17 APR AT 19:11

क्या हुआ आए थे लेने मुझे
पर हालत देख तुम भी भौचक्के हो गए
जी रहा हूं या हूं मुर्दा.. ना समझ तुम पा रहे हो
कैसे बताऊं जिंदा हूं मैं बस महबूबा मेरी कुछ रूठी है हमसे..

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17 APR AT 18:27

थोड़ा गुस्ताखी...

नक़ाब ए हुस्न का शायद ईजाद हुआ ही
इसलिए कि वो हया को परदे में कैद कर दें

वरना खिसका नकाब जो कहीं किसी हुस्न का
तो कहीं कोई शरीफ बेहया हो बेपर्दा न हो जाए..

फिर ज़ख्म जो शायद भर गुजरते लम्हों संग
वो नासूर बन तबाह जिंदगी को कर जाएं...

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17 APR AT 15:33

सुनो.. एक बात पूछूं कोई उत्तर देगा क्या
राम अराध्य हैं मेरे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं..
उनके बारे में उनकी लिलाओ पर प्रश्न उठाना
मकसद न है मेरा..
बस एक बात समझ न आती क्या राजाकी मर्यादा
निभाते निभाते वे पति और पिता के कर्तव्य से चूक गए...??

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13 APR AT 20:31

समर्पित तेरी समर्पण को
क्या स्वार्थ था तेरा
इतने कष्टों बाद भी बंधी रही तू मुझसे कैसे
बस शायद संस्कार ही थे जो मां ने दिए थे तेरे..
तू लड़ झगड़ कुछ मायूसी काम कर लेती है
मगर कुछ शिकवा शिकायत न करती
देखता बहुत कुछ हूं चाहता हूं कुछ बोलूं
थोड़ा तो तेरे संग खड़ा हो अपने कर्तव्य को जी लूं
कुछ तो तेरे अधिकारों के लिए बोलूं..
मगर शायद तू किसी और मिट्टी की बनी है
चुप करा मुझको तू कैसे सब सह लेती है...
दोषी खुद को समझता हूं..
मॉडर्न हो भी तो कैसे ये सब कर लेती है..

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13 APR AT 15:17

जिस्म की चाहत होती तो.. कीमत लगा लेता
बात तो बस अपने मिलते झूलते विचारों की थी
सोचता हूं कैसे तेरे विचार इतने मिलते झूलते हैं मुझसे...
दर्द से तन्हां तू है पर मैं तो शायद उतना नहीं
फिर क्या था वजह जिसके तू हमेशा मुझे अपनी नज़दीक लगी..

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13 APR AT 14:52

में शख़्स हर एक बहुत महत्वपूर्ण हैं
सफ़र में हमराह बहुत मिले मगर दोस्त बहुत कम बने
भीड़ बढ़ाने की न आकांक्षा रही कभी बस जो दिल के करीब हुए वही दोस्त बने..
जाना नज़दीक से जब इंसान को तो बिना जरूरत के बहुत कम मिले
उनमें भी कुछ आंखों के तराजुओ से तौलते मुझे दिखे..
बस उंगलियों की गिनती पर ही गिनने वाले कुछ ऐसे मिले जिन्हें सिर्फ़ मतलब मुझसे था मेरी हैसियत से नहीं...

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