बहुत शोर करतीं हैं पकड़ने पर कलाई
तेरी चूड़ियां किसी दिन मरवाएंगी मुझे-
धागा था कहने को
जो माँ ने कलाई पर बांधा था
लायी थी मन्दिर से
मुझे बड़े नाज़ों से जो पाला था
ये पतला सा लाल धागा
सारी बलाओं से मुझे बचाता है
बस ले लेता हूँ नाम अपनी माँ का
जब भी कोई मुझे सताता है
- साकेत गर्ग 'सागा'-
शायद तुम्हें नहीं मालूम
जब 'रसोई घर में' चुपके से पिछे से आकर 'मेरी कलाई' पकड़ते थें ना तुम..
तो चूल्हे पर चढ़े हुई 'आलू के पराठे' भी हमें साथ देखकर 'जल' जाते थें...!-
बहाना क्यों मैं तेरी कलाई ऐसे ही पकड़ लूंगा ?
हकीम बनने की जरूरत नहीं मैं तेरी नब्ज़ ऐसे ही पढ़ लूंगा !!-
ज़रा सी कलाई पकड़ रखी है वक्त ने मेरी
वरना मेरी तो आदत है सब से आगे चलने की-
एक नई पहल पर चलने को,
कुछ धागे पुराने टूटते हैं।
पर निशां कलाई पर जो हैं,
ये छोड़े कभी न छूटते हैं।
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थोड़ा और ज़ोर से थाम के रख मेरी कलाई को ,
लकीरों का आपस में बाते करना अच्छा लगता है ।-
देखा है मैंने-
दुश्मनी में शोला भड़कते हुये
दिल की तरह ही
कलाई की नब्ज़ भी धड़कते हुये....-