वो थी तब
बातों की कमी न थी
हँसी थी झगड़े भी थे
पर आँखों में
नमी न थी...
वो थी तब
टेसू के फूल खिले भी थे
ज्येष्ठ की दुपहर थी तो
सावन के झूले भी थे...
अब मैं हूँ
एकान्त में मग्न हुए
स्वप्न जो देखे
सब भग्न हुए
जिसके संग
जीवन जीना था
वो थी तब
अब नहीं...-
पीसता हूँ गेहूँ पर मिलता नहीं आटा
पीसता हूँ शोर तो मिलता सन्नाटा
है मेरे पास दोस्तों की दौलत इतनी
होने लगा मेरे एकान्त का घाटा-
एकान्तप्रिय,
वास्तव में
नहीं होते
एकान्तवास में ।
सदैव
घिरे रहते हैं
वे
गहन
विचारों से,
कल्पनाओं से..!!-
नभ शांत है, जग शांत है, बहती पवन भी शांत है,
हूँ घिरा अपनों से लेकिन, दृष्टि में एकांत है...
आज सारे घेरकर, दोहराते मेरा वृतान्त है,
भीड़ आँगन आईं लेकिन, दृष्टि में एकांत है...
खो रहे आँसू सभी, देखकर प्राणान्त है,
खो चुका सब मैं भी लेकिन, दृष्टि में एकांत है...
ना रहा जग आज अपना, ना देश, ना ही प्रान्त है,
सम्मुख है जीवनकाल लेकिन, दृष्टि में एकांत है...
सत्य है जलता हुआ शव, व्यर्थं में जग भ्रांत है,
शुन्य था, फिर शून्य होकर, दृष्टि में एकांत है...
Lo$t Boy...😔-
मन की अनवरत यात्रा में
एकाकीपन का अहसास
नगण्य ही रहा
अनुकूल और विपरीत
परिस्थितियों में
तुम्हारी उपस्थिति
का बोध
कायम रहा
गम्य अगम्य की न बाध्यता
और न बंदिशें हीं रहीं
निर्बाध!
दुर्गम और सुगम से अनभिज्ञ
अछूते पहलूओं से
साक्षात्कार कर लेती
पल भर में मीलों
चलकर लौट आती
ठहर जाती!!
चिंतन आलिप्त
यात्राओं का वृतांत
उत्तरोत्तर बांटता मन
एकांत की असीमित
परिधि के दायरे में
जो वस्तुतः एकांत नहीं!!
प्रीति
-
करने को जगत कल्याण ,
शिव जी चले एकांतवास ।
सम्पूर्ण जगत के कर्म पिता ,
चले पूरन करने अपना धर्म पिता ।
बैरागी , शिवशंकर , भोले ,
डमरू से जिनके धरा ये डोले ।
संग माता आदिशक्ति के ,
सौभाग्य बचाने इस धरती के ।
था ताड़कासुर का आतंक बढ़ा ,
उसके सिर था अभिमान चढ़ा ।
तब मिटाने को जगत का अंधकार ,
लिया रुद्र अंश ने अवतार ।
कृतिकाओं की गोद में खेले ,
जगत उन्हें श्री कार्तिकेय बोले ।-