चलो.. कहीं दूर चलते हैं
भूल कर सब बातें.. कुछ अलग सोचते हैं,
किसी विराने में.. किसी नदिया के किनारे बैठकर
रेत की दीवारें बनाकर.. आंसुओं को रोकते हैं,
शायद देखकर साहिल को डूबता हँसी आ जाये
या फिऱ ख़ामोश कोमल नदी की आँख भर आये
चलो आज ख़ुद को डुबाकर देखते हैं
बहती नदिया को रुका कर देखते हैं,
पुकारते हैं चलो.. के कोई अपना आये
पऱ कहीं इसी आशा में निराशा ना छा जाए
चलो ख़ुद ही कागज़ की कश्तियाँ बनाकर देखते हैं,
ख़ुद को उनके सहारे बचाकर देखते हैं,
लौटना मुश्किल है तो फिऱ तड़पना कैसा
जिस्म को जाँ से दूर तो होना ही था
बहुत जागे ज़िन्दगी की रातों में.. आख़िर इक़ दिन आंखों को सोना ही था,
गैरों से हाथ बहुत मिलाये.. चलो आज अपनों को गले लगाकर देखते हैं
ज़िन्दगी को छोड़कर.. मौत को अपना बनाकर देखते हैं...,
चलो.. कहीं.. दूर चलते हैं!!:
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