यू ही हाथ थाम मेरा साथ निभाना
जिंदगी का सफर संग है तेरे बिताना।।
अनुशीर्षक पढ़े।-
कविता को न शीर्षक चाहिये
न अनुशीर्षक।
कविता तो इन दोनों के बीच
बची हुई जगह में
समेट लेती है स्वयं को।
कविता विस्तार चाहती है
केवल मन की गहराइयों में।-
" धार छन्द "
बीती रात ,
आया प्रात ।
ताकूँ पंथ ,
आते कंत ।।
पी के संग ,
जाऊँ रंग ।
देखूँ नैन ,
आये चैन ।।
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अनुशीर्षक
जिस प्रकार अक्सर शीर्षक ना
समझकर अनुशीर्षक, किसी भी
लेख से बेहतर रूबरू होने का
ज़रिया है, उसी प्रकार यदि हम
प्रत्येक मानव के रूप तथा आकृति
को आधार ना मानते हुए, उसके
मन और व्यक्तित्व को समझें,
तो शायद इंसानियत के
मायने कुछ अलग दिखने लगें।-
कुछ तुलसी के कुछ कबीर के
कुछ जयशंकर, महावीर के
अमर शब्द- बहुदीप जलाएँ
आओ हिन्दी दिवस मनाएँ ।
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हुए परेशान जो पर्दा और गिराया ना गया।
सुनेहरा आफ़त पे मुझे दिलकशी आ गया।।
मंडी में मशरूफ उन जुल्फों पे वोह जुंबिश।
निगाहें जो गिरी मुझपे और ऊंस छा गया।।
इस कदर दिल्लगी का खुमार मुझपे छाया।
इश्क़ की ताब के आगे यह गर्मी फीका गया।।
मंदिर से मेरा यह भरोसा क्यों जाने लगा।
हर जगह तेरी सूरत इबादत बन सा गया।।
कोई भजन या कीर्तन ना असर छोर पाया।
तू खुदा जहां मेरा अकीदत बस वहा गया।।
दिन ब दिन नशा तेरे प्यार का ऐसे छाया।
तुझपे मेरा यह जुनून नाम कई लाता गया।।
अंजामे दिलकशी ना वक्त का कदर किया।
हयात में मौत तुझे मेरी जन्नत का दिखा गया।।
ख़त्म कहां यह शुरू हुआ मेरा सिलसिला यहां।
‘खुमार’ तेरा दास्तान देखा सूफियाना होता गया।।
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