जीवन-पर्यन्त
वह सिद्धान्त
रखता है आपको
'भ्रम' में
कि आप कार्यरत हैं
सिद्धान्त-अनुसार..!!
(शेष अनुशीर्षक में)-
अज्ञानता
कैसे कहते उसको निर्दय
ख़ुद जल कर तम जो दूर करे
कब शमा बुलाए पास पतिंग
वह ना समझे तो ,लौ क्या करे
ये दीप प्रकाश को लाजिम है
क्यों महत्ता इसकी भूल गए
विध्वंसक ज्वालामुखी सम रख
तुम तुलना में क्यों चूक गए
है अति सदैव प्रलयकारी
हो आग ,पवन या हो पानी
लेकिन जीवन आधार यही
ये बात सभी ने है मानी
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कहाँ तो उनके मुँह में नहीं थी कोई ज़ुबाँ
कहाँ तो अब कैंची की तरह चलने लगी ज़ुबाँ-
बहुत खेलें हम प्रकृति से,
अब प्रकृति मानव से खेल रही हैं,
कुदरत को जो सताया था लोगों ने,
अब अति प्रकृति का झेल रही हैं।
निहायत छेड़ा मानव ने सृष्टि को,
अब "निसर्ग" मानव को छेड़ रही हैं।
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थोड़ी कड़वाहट भी ज़रूरी है रिश्तों में,
हद से ज्यादा मिठास होने पर मिठाइयां भी फेंक दी जाती है,,
चींटियों के भय से या शुगर के डर से...
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अति
हर
चीज़ की
बुरी होती है
मगर कभी-कभी बुराई से "साथी!"
दो दो हाथ कर ही लेने चाहिए, क्यों?-
कितना सुकून देता है तेरा आसपास होना
अति दूरियों में भी तेरा अति निकट रहना-
कोयल की कूक लगे अति प्यारी,
मधुर सुरीली मनमोहक।
पुलकाए रूह पंचम सुर से,
प्रकृति से मिली ये पारितोषक।-