मन करवाता अपनी मनमानी
विवेक को देता पटकनी अनेक
मन के हाथों बनकर कठपुतली
इंसा करता गलती अनेकों अनेक-
तरक्की की आँधी ऐसी चली है
माँ बेटे के घर में बंदी बनी हुई है
बहु त्रियाचरित्र संस्कारवान सुघड़ बनी हुई है
सांस सुघड़ भी फुहड़ता की उपाधि से नवाजी गई है
चरित्रहीन चरित्रवान कहलाता है
चरित्रवान की और हजारों उंगलियां उठी हुई है
तेरी दुनिया तेरे जैसी मेरी दुनिया मेरे जैसी
कहीं पतझड़ में भी पात हरे भरे हैं
और कहीं, बसन्त में भी पतझड़ लगा हुआ है
तमाशा है जिंदगी, कभी मज़ा है कभी बेमज़ा है
किसी के लिए सिर्फ मज़ा ही मज़ा है
और किसी के लिए बेमज़ा ही है पूरी जिंदगी
ना तू कुछ कर रहा है ना मैं कुछ कर रही हूँ
हो वो ही रहा है जो दाता कर रहा है-
इंसान में, आज के वक्त में, इंसान कम रह गया है।
गिद्ध से भी कहीं ज्यादा, आज इंसान गिद्ध बन गया है।
गिद्ध अधमरे जीव को उतना नहीं नोचता खसोटता है।
जितना आज इंसान को इंसान नोच खसोट रहा है।
*********** सुमन यादव **********-
नित पत्थरीले पथ पर चल कर....
लहूलुहान होने से खुद को बचाएं कैसे?
नित आघातों से घायल हृदय पर
सांत्वना का मरहम लगाए कैसे?
कयी दशकों से बंजर हुए मन से
सृजन के मधुर गीत गुनगुनाए कैसे?
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तुम्हीं बताओ उल्टी गंगा बहाए कैसे?-
काश हम बदल पाते बीते लम्हों में जाकर
कड़वे पलों को जो रह रह कर कसकते हैं-
कुछ ऐसा लिखों ना जो रूह को छू जाए
तुम बदले नहीं हो इसका विश्वास हो जाए-
कुछ तो है
जो जोड़े हुए है
वो कुछ क्या है
कभी समझ नहीं आया
कुछ बकाया तो नहीं है
लेन देन कोई भूला बिसरा-