पतझड़ का मौसम है,
पेड़ों से पत्ते गिरना
तो कुदरती है,
मग़र.....
इन इन्सानों का क्या.. ?
जो बेमौसम नज़रों से
गिरे जा रहे हैं।।-
दिल के शहर में हर एक मौसम बदले हैं जनाब,
चाहे वो इश्क़ की बारिश हो या अफसोस की पतझड़ ।-
इश्क में इस तरह बर्बाद हुआ...
कि बारिश में भी बंजर देखता हूँ...
ग्रीष्म, शर्द, और बसंत की बात छोडो...
मैं तो सावन में भी पतझड़ देखता हूँ...
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वसंत, ग्रीष्म, शरद...
ऋतुएँ होंगी आपके लिए...
मैं तो अब सिर्फ...
पतझऱ देखता हूंँ...
वो कहती थी...
मेरी मोहब्बत सच्ची नहीं...
तो अब भी मैं उसे...
क्यों मुड़ कर देखता हूंँ...??-
पतझड़ में गिराए थे जिसने, पत्ते अपने झोकों से...!
वही हवाएं अब बसंत में, साथ निभाने लग गए हैं...!!-
बैठे मदहोश होके सावन के इंतज़ार में
कमबख्त,
सावन से पहले देखो पतझड़ है आ गया-
Tere yaad me ham aise rahte hai...
Patjhad me jaise darkhat rahte hai....
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Aaj Kitaab-ê-Zindagi ke
kuch purane Warqon ko
palatkar dekha...
Patjhadh hi Patjhadh tha....
Matlab ßå$@ñt kareeb hi hai...!!
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