इल्म - ए - उरूज से नावाकिफ लड़की
तुझे सोचती है तो मिसरों में बात करती है।-
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Hr khushi Saba si chukar nikal jati ... read more
Ajeeb kashmakash me daal rakkha hai
Ye kaisa tareeka-e-ghuftugu nikal rakkha hai
Tujhe sada doon ya na doon pasheman si hoon
Tune khud ko offline mode pe daal rakkha hai-
आग़ोश में लेके तुझे आ होश मैं खो दूँ
मदहोश होऊँ इस तरह कि कोई होश रहे न बाकी
चश्मों में ज़रा सा आ इश्क़ मैं पिरो दूँ
जिस सिम्त भी उठें यें तुझे मैं ही मैं नज़र आऊँ-
तू मेरा पूरा हो सके तो आ राहें खुली हैं
लब ख़ामोश कुछ कह न सकें आँखें खुली हैं-
वो बचपन थोड़ा बचकाना था
ये उम्र भी हमें कुछ रास नहीं
उस लम्हा भी तू दूर थी मुझसे
इस पल में भी तू मेरे पास नहीं
तेरी ना ने कल को लूट लिया
अब आज में मेरे कुछ ख़ास नहीं
बस तेरा हिज्र है और तेरी यादें हैं
दिल में बाकी कोई एहसास नहीं
तुझे चाहा था मेरे हर ज़र्रे ने
हर ज़र्रा रहा फिर उदास नहीं
तेरी बातों में है अब भी चाशनी
मेरी ग़ज़लों में वो मिठास नहीं
तुझे लिखा था हमने इश्क़ मगर
तुझसे इश्क़ की कोई आस नहीं
उस लम्हा भी तू दूर थी मुझसे
इस पल में भी तू मेरे पास नहीं— % &-
जो सुनाते हैं वो पूरा फसाना नहीं होता
बुरे हैं ज़माने के लोग बुरा ज़माना नहीं होता
कि तलाशता है हर कोई दुश्वारियों का हल
जो बताता है वो वाहिद बहाना नहीं होता
उन बहानों को ज़रा तो समझ ऐ नासमझ
बुरे हैं लोग पर हर शख़्स आमियाना नहीं होता
बस तलबगार हैं परिंदों सा ऊँचा उड़ जाने को
पर हर परिंदे का यहाँ आशियाना नहीं होता
कभी सहरा कभी साहिल कभी शाखों से गिरते पत्ते
बयाँ करते हैं यहाँ हर मौसम सुहाना नहीं होता
महज़ एक झरोंके से सरक जाती हैं जिस्मों से रूहें
ज़िंदगी मौत का कोई ठिकाना नहीं होता
अब तो हो बेदार बेखबर मुसाफ़िर कि सहर आई
मुसल्लों को अलमारियों में यूँ ही सजाना नहीं होता
लाज़मी है कि हो नफ्सों की सरज़निश ऐ सबा!
कि इनका रब से दिल का लगाना नहीं होता— % &-
बड़ा मुश्किल हुनर साहेब
पर हमने सीख जाना है
छिपाकर आंँख में आंँसू
हांँ ऐसे मुस्कुराना है
कोई पूछे जो कैसे हो
हसी में टाल जाना है
बड़ा मुश्किल हुनर साहेब
पर हमने सीख जाना है
ज़माने की तलब है क्या
हमें ये भूल जाना है
रखा ही क्या ज़माने में
आरज़ी अपना ठिकाना है
बड़ा मुश्किल हुनर साहेब
पर हमने सीख जाना है।-
हाँ हम तेरे बुलाने पे चले आए
बुझी शमआ जलाने को चले आए
ज़रर रसा है मय अंजान नहीं हम
तो ये जाम छलकाने को चले आए
रिजालतें तो सबमें है क्या करे कोई
हम तो हिरफत दिखाने को चले आए
नागहाँ हो ना जाए किसी से ज़राफत
सताइशें अपनी ही सुनाने को चले आए
बता कर खुद को औसाफ़ का समुन्दर
तुझे खुद में समाने को चले आए-
जाना ये मेरी जान अधूरी
होठों की मुस्कान अधूरी
कलम की नोक में सिमटी
दर्द भरी दास्तान अधूरी
क्या हूँ? क्यों हूँ? कैसी??
खुदसे ही अनजान अधूरी
मंज़िल की ना कुछ खबर
कदमों पर हैरान अधूरी
मुझ जैसी ही नज़्म मेरी
ना कोई उनवान अधूरी-