जिंदगी मरूस्थल की तरह है जनाब......
मंज़िल हर वक़्त दिखती है पर हमेश वो सही नहीं होती जिस तरह हमे मैराज दिखता है-
जीवन के मरुस्थल में मैं तेरे लिए भटकती हूँ
मिल जा मुझे इस मरुस्थल में
तेरे प्यार की एक बूँद को तरसती हूँ-
कभी मैं सागर हुआ करता था, आज सूख चुका हूँ।
देखो तुम्हारी वजह से कई खण्डों में टूट चुका हूँ।
तुम जो भरती थी मुझमें पानी वो प्रमुख नदी थी,
तुम्हारे प्रवाह को मुझ तक जोड़ने में भगवान को लगी सदी थी।
के तुमने जो रूख मोड़ा दूसरी ओर मेरा जल स्तर गिर गया,
मैं रेगिस्तान बनने की प्रक्रिया में मुसलसल घिर गया।
के मैं अब इस रेतीले पहाड़ो वाले मारूथल से ऊक चुका हूँ।
कभी मैं सागर हुआ करता था, आज सूख चुका हूँ।
देखो तुम्हारी वजह से कई खण्डों में टूट चुका हूँ।
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हौंसला रखो ऐसा कि थार के मरुस्थल मे भी बाग लग जाए
गिनने दो बुराइयाँ दुश्मनों को चाह जाऊं तो पानी मे आग लग जाए-
हिवड़ो ना हुयो,
यो हुयो टीलो थार को,
थारा सिवा
कोई और खातर उगे कोनी,
कोई नयो बूटो प्यार को ।-
तुम्हारे माथे की बिंदी के चाँद में
नहाया हुआ रेगिस्तान
और रेत की बंद मुट्ठी सा टीला
जिसमें दो जिस्म एक दूसरे की
रूह तलाशते रहे रात भर
उसी रेत की
ऊँचाई और गहराई में
मानसरोवर तलाशते रहें
प्यास बढ़ती रही
तपिश पिघलती रही रात भर
लेकिन ख़ुद में तुम्हें
और
तुम में ख़ुद की तलाश
शेष है अभी
पूरी कायनात से कह दे कोई
इस रात के बाद फिर सुबह ना हो-
डारां मू कुंजा, रुळती रोवे
कि पासे जावै कठे ने सोवे
ना ठोर ठिकणो लादे बिने
के जो अपनों सूं बैर कमावे
माणस ने माणस जाणे कोनी
कुण, केठा, कद आडो आवे
जिणो मरणो कि हाथां मे है
जो कर्म करे,भरणो ही होवे..
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मरुस्थल में मिराज से सब
क्या ईश्वर क्या रब
ना होकर भी दिखते तब
ना उम्मीद इंसा हो जब
मिथ्याभास कहो या मतिभ्रम
उम्मीद की एक किरण है कम से कम-
यादों के मरुस्थल में ना जाने,
कितनी के क्या क्या दफन हो गए।
बचपन दफन,
जवानी दफन,
सपने दफन।-