वो चेहरे से अपने जब हटा देता है जूल्फें,
उसे ख्याल भी नहीं,
कितनों की सुबह हो जाती है;
झुका कर पलकों को जब उठाता है वो सादगी से,
उसे मालूम भी नहीं,
कितनों की दुआ कबूल हो जाती है;
उसके सुर्ख लबों की तबसुम, क्या कहने,
उसे फिक्र भी नहीं,
कितनें गुलों को जलन हो जाती है;
वो जो करता है हंस कर गुफ्तगु जब कभी,
उसे खबर भी नहीं,
कितनों को जन्नत नसीब हो जाती है;
लिख लेता हूं जब चंद अल्फाज़ उसकी तारीफ में,
उसे यकीन भी नहीं,
गज़ल मेरी मुक्कमल हो जाती है ।।
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