ज़ुल्फें यूँ बिखरा दो कि रात कर लो,
खोलो उन लबों को और बात कर लो।-
अरसे से मेरे अल्फ़ाज़ तेरी जुल्फों में फसे थे
झटकी जो लटें आज तो इक ग़ज़ल बन पड़ी।।-
तेरी ज़ुल्फों के छाँव में सोने की चाहत है
तेरी आँचल के गाँव में रहने की चाहत है
भटकी राहों पर मिली न मंज़िल मुझे मगर
तेरी आँखों के जंगल में खोने की चाहत है
जान-ए-जाँ हस्ती मेरी मिटने से पहले
मुझे तेरे इश्क़ में मीट जाने की चाहत है-
लड़ने दो जुल्फों और हवाओं को आपस में...!!
तुम क्यों हाथ से उनमें सुलह
कराने लगती हो..!!-
सवाल ये था कि कैसी कमाल है ज़ुल्फें,
झुका नज़र को कहा ये कमाल हैं ज़ुल्फें!-
ये जो बार-बार हाथ फेर ज़ुल्फों को सुलझाते रहती हो तुम
कभी सोचा है....
तुम्हारी इस आदत ने कितनों की ज़िंदगी उलझा दी होगी !-
खुली हुई जुल्फों से न निकला करो बाज़ार में ए आदम की बेटी .....
खुली ज़ुल्फ़ों पर इंसान से ज़्यादा जिन्न आशिक़ हो जाया करते हैं-
क़े मुझे यूँ न देखा करो,
तिरछी नज़रें तेरी ज़ेहेर सी हैं,
और ख़ोले जो तू ज़ुल्फ़ें अपनी,
बा-ख़ुदा लगती तू क़ेहेर सी है...-
सुनो ज़रा...
तुम मुझसे यूँ दूर बैठ
नेह न जताया करो
कभी पास बैठ मेरी
ज़ुल्फ़ों को भी
सुलझाया करो..!-