मैं "वस्ल" चाहता हूँ उससे,उसकी दुआ हैं कि "हिज्र" मुकम्मल हो,
हे खुदा ! तू दोनों की सुन,
जिस्म जुदा रहे, फ़क़त रुहो का मिलन हो-
नाक़ाबिल-ए-बरदाश्त सा हिज्र का कहर लगते हो,
पहले तो तुम शहद लगते थे, अब ज़हर लगते हो ||-
उनके कूँचे से निकलने में घबराहट हलक तक रहती है
निकल कर उनकी आह से मेरी ज़ुबाँ लहू तक बहती है
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मिलना, न मिलना ख़ुदा की मर्ज़ी है यारो,
यूँ जानकर कोई हिज़्र नहीं काटता.....-
Jis sham brste hai Teri yaad ke badal
Us shb koi bhi hizr ka tara nhi hota
Yu hi chle aate hai mere pahlu me aksar
Vo drd jinhe maine pukara nhi hota.
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इस इश्क़ मोहब्बत का,बस नाम अच्छा है,
न हसीनो का हिज़्र, न विसाल अच्छा है,
दुनिया ने पूछा जब भी,क्या आरज़ू है मेरी?
मैं चुप ही रह गया, मगर सवाल अच्छा है।
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न वस्ल से न हिज़्र से
सुकूँ मिलेगा तुम्हें बस अपनी कद्र से
न खैरात से न दौलत से
तुम अमीर हो अपनी बूता ए मेहनत से-
ज़रूरते रोज़गार भी तुम ही से था-
जो तुम नहीं तो रोज़गार भी क्यों करे!!
हिज़्र में मौत तो मुमकिन नहीं पर-
इन्तज़ार भी विसाले यार की कबतक करे!!-
मेरे हिज़्र ए वफ़ा का आलम देखिए
तू है नहीं मगर हर शय में तू ही तो है।-