तुम मेरे दिलबर ही नही रहबर भी बनो
चलते सफर में एक हमसफर भी बनो
मैं जितना भी तुम पर जां निसारी करूं
तुम मुहोब्ब्त भी करो, कहर भी बनो
दर दैर आस्तां और कूंचे में बैठूं मगर
जब तेरा सिरहाना हो, तो घर भी बनो
तुम इतना भी न चाहो की अमर बनू
कभी कभी मेरे दिल का जहर भी बनो
सब ही बातें न खुल के कहा करो तुम
कभी, वो, यूं, ऐसे, खैर मगर भी बनो
मेरी जुबां तो यार तुम बन गई हो अब
जो चूम सकूं तुम्हे वो अधर भी बनो
कितनी अपेक्षा करता आया हूं तुमसे
शुभम अब के उसकी डगर भी बनो-
दिल की मलिका मम्मी🙈
बॉडी का ब्राण्ड सबके जैसा
मग़र सोच का , आपकी औक... read more
बिगड़ती बातों से संभलता गया
अकेला था सो अकेला चलता गया
मिले राह में मेरे ही हम साए मगर
हर मंजर पर शक्ल बदलता गया
याद आता कुछ तो सो जाता था
इतना जीया खुद में की मरता गया
रातों में शजर की छा हमज़ुबां थी
सुबह तक उससे बातें करता गया
गले लगा कर बमुश्किल ही संभाला
वो दूर हटता रहा मुझसे डरता गया
मैं फिर भी हाथ थामे खड़ा रहा
चश्म से कोई दरिया बहता गया
बीमार नही हूं, बस हो गया हूं ऐसा
वो हाल पूछता रहा मैं हंसता गया-
इंसान एक खाता पीता आदमी है
बड़ा बेदर्द बेलिहाजा आदमी है
जिसे तुम अच्छा बताया करती थी
वो बुरा, निहायती बुरा आदमी है
और जिसे अपना कहता रहा ताउम्र
वो किसी और का सगा आदमी है
ज़िक्र-ए-खैर है की कैसा होगा वो
जानवर है, बस दिखता आदमी है
वो जो तुम्हें अपना ना बना पाया
वो ना जाने कैसा आदमी है
ये जो आईने में है वो मेरा चेहरा है
इतना उदास ये किसका आदमी है
सदियों जलता रहा हिज़्र में शुभम्
और फिर वो ही बेवफा आदमी है-
जाने अब किस मोड़ मुड़ आए हम
मौका मिले तो तुम्हे घर बुलाएं हम
तन्हा-तन्हा जा रहें दिन आज-कल
जन्मदिन पर कोई गीत सुनाएं हम
बहुत सी बातें तह लगा कर रखी हैं
तेरा हाथ थाम तुझे सब बताएं हम
कितनी परेशां रहने लगी हो तुम
चलो पर्वत पर अलाव सुलगाएं हम
इतना मत सोचा कर जिंदगी को
आओ जिंदगी को आग लगाएं हम
चांद से चेहरे पर मैं सा ग्रहण छोड़ो
चल चांदनी से मुलाकात कराएं हम
तारे सी चमकती लौंग और ये लब
'शुभम' इस "निशा" कहां जाए हम-
अच्छा होता है रो लेना कभी कबार
गले को थोड़ा ज़ख्म देना कभी कबार
रूह को दर्पण दिखाना कभी कबार
रूह का निकल जाना कभी कबार
हाथों कि पकड़ तो छूट जाएगी मगर
याद आता है याद आना कभी कबार
आसमां अनंत है पर है आसमां ही तो
जहां चांद का छुप जाना कभी कबार
अश्कों की धारा यूं हथेली पर बहाना
फिर तेरा माथा चूम जाना कभी कबार
ओंस की बूंदे पाओं पर लगती है ज्यों
नजर आता है नजर आना कभी कबार
मुद्दतों की आदतों से परेशां हैं "शुभम"
फुरसत से मरना मर जाना कभी कबार-
बिखरते ख्वाबों को कैसे इकट्ठा करूं
मर ही ना जाऊं क्यूं बेसबब जिया करूं
बेहतर नहीं हालत अब कुछ भी यहां
क्यूं हर हाल में मैं तेरी तमन्ना किया करूं
वो चाहे ना कोई तअल्लुक रखे मुझसे
मैं भी क्यूं कोई आरज़ू उनसे बयां करूं
है यूं भी की बिन उनके जिएंगे क्यूँकर
फिर मरने को उनकी तस्बीह अदा करूं
खू-ए-सवाल मुझको रखता नहीं हूं मैं
बेतलब तुम्हारे भला किससे मिला करूं
दिल-ए-ज़ख्म तो भरा पर लहू न थमा
ऐसी वफ़ा लिए भला कैसी गिला करूं
आईना दिखावे जो मुझे मेरा ही तमाशा
'शुभम' ऐसे जख्म की कैसी दवा करूं-
मुझे रहने को चाहिए कशाने की छत
मेरे रहने की जगह ख्वाब सुलाने की छत
दरवाजे , दीवारें, आस्तां सब तेरे तू रख
मुझे तो चाहिए बस दिल लगाने की छत
तीज ओ त्योहार और होली का श्रृंगार
खाने की खुशबू वो पतंग उड़ाने की छत
रात का अंधेरा बिना बिजली के गर्मी
कहानियों की छटा इन हवाओं की छत
कुछ जिंदगी के लम्हें वो तुम्हारी छत
किस्सों के सबूत मिलने मिलाने की छत
दर्द की रातें और "शुभम" सा मौसम
सुलगता हृदय फिर आंसू बहाने की छत
आशिकी की दुनियां आशिकों की छत
रूठने के किस्से कभी मनाने की छत-
जिंदा है मर कर जो है अब के
है प्यार मुझसे तो कह अब के
कुछ नहीं रखा वादा वफा में
तू मुझ में पानी बनकर बह अब के
क्या झूठ है क्या सच हूं मैं, बता तू
ना बता सके तो अकेले रह अब के
अफसाना ना सुना सके तुम्हें हम
तू अपनी ही दास्तां कह अब के
सब खुश दिखते हैं शक्ल से पर
सबके गम तह दर तह है अब के
गले लगो तुम तो बात आगे करूं
वरना दोस्त बन के ही रह अब के
गिलाफ मेरे सीने से उठा "शुभम"
हम सियेंगे आंसू सुबह अब के-
छत पर एक लम्हा उगाया था कभी
उगा कर वहीं छोड़ आया था कभी
इश्क की बूंदों से सींचा था जिसे
ग़म के दिनों वो मुस्कुराया था कभी
तेरे आंचल की छांव में रहा वो सदा
तुम्हीं ने तो उसे बचाया था कभी
खुशबू तो आती होगी तुम्हे उसकी
यादों में जिसे बसाया था कभी
हाथों में हाथ डाल कर घूमें थे खूब
सीने से भी तो लगाया था कभी
वो लम्हा अब शजर सा लगता है
जिसे अपने कंधे पे सुलाया था कभी
याद रहेगा मेरा होना इस शजर से
"शुभम" भी तेरे घर आया था कभी-
सैकड़ों महफिलें जवां की है मैंने
तेरी खातिर हर दर दुआ की है मैंने
क्या सोचते हो जाने देंगे तुम्हे यूं ही
साथ रखने की जुबा की है मैंने
इतने खफा? इतनी नाराजी क्यों है
तुम्हे मनाने की हर वफ़ा की है मैंने
मुझे तो कोई शिकवा नहीं किसी से
क्यूं सोचते हो कि गिला की है मैंने
अपनी हालत का खुद सबब हूं मैं
सिवाए ग्लतियां के क्या की है मैने
जिंदगी तो तुझे वसीयत कर दी मैंने
अपनी नाराज़गी बेवफा की है मैने
गूंगे बहरों के शहर में रहता हूं शुभम
तुझसे मिलने की इल्तिज़ा की है मैंने-