कयामत - पे - कयामत आई हैं,
आज ना जाने किस - किस की मौत आई हैं,
मेरी जान आज फिर लाल साड़ी पहन आई है...-
साड़ी क्यों नहीं पहनती तुम?
पहना करो, अच्छी लगती हो
सुखे पत्तों के बीच,
गुलाब की पंखुड़ी लगती हो
शायद तुम्हें पता नहीं
नज़रें बहुत सी तुम पर रहती हैं
लेकिन उत्सवों में तुम
आंखों का नूर बन उभरती हो
देखने को नजारे और भी हैं
दिल बहलाने के लिए फसाने और भी हैं
मगर तुम्हारे शबा़ब जैसा
आफ़रीन पूरे कया़नात में नहीं
साड़ी के पल्लू को संभालती
मेरे ख़्वाबों की बेचैनी लगती हो
साड़ी क्यों नहीं पहनती तुम?
पहना करो, अच्छी लगती हो-
कांजीवरम बनारसी साड़ी की खुबसूरती एक तरफ
और
माँ की पुरानी साड़ी की खुबसूरती एक तरफ-
महज आज भी उतनी ही खूबसूरत दिखती हो साड़ी में
ये बात और है, अब हमें निहारने की इजाज़त नहीं-
लपेटे हैं वो गोया शोख़ समंदर,
ज़रा बचके रहना
किनारों का भी इमान न डोले,
तो फिर कहना !-
प्रेमी अपनी प्रेमिका को
एक बार साड़ी में ज़रूर देखना चाहते है
दरअसल वो
अपने सबसे सुंदर स्वप्न का एक लम्हा ही सही
उसे हक़ीक़त होता देखना चाहते है-