पुन: कहती हूं..
किसी शब्द में नहीं
वह सामर्थ्य
जो उम्मीदों की
टूटन से
उपजी पीड़ा को
बयां कर सके!
और, ना ही
धरती की
किसी नदी में
वह मिठास...
जो समुद्र का खारापन
तनिक कम कर सके!-
Jivan ka hr pal samudra ki lehro ki tareh beet jata h chahe khusi Ho ya ghum esliye samudra ki tareh bno ...
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एकांत के सबसे व्यक्तिगत क्षणों में लिखे गये
किस्से-कविताओं में दफन होते हैं कई रहस्य
लड़ते हुए अंतर्द्वंद्व,
उबलते हुए क्षोभ,
भावनाओं में बहती करूणा,
शूल सी चुभती व्यथा,
चीत्कार करता हुआ मौन,
कहकहे लगाती विडंबना,
प्रेम की स्वीकारोक्ति,
आत्महत्या करती आकांक्षाओं की कथा,
इनके तह तक पहुंचने के लिए पीना होता है इन्हें ज्यों का त्यों
जैसे पूरा समुद्र पी गये थे अगस्त्य-
कोई अतृप्त-सी इच्छा
लेकर मन में अनवरत
मैं प्रवाहित करती हूँ
राग और धुन
तुम्हारे मौन में...
ठीक उसी प्रकार जैसे
अनादि काल से
नदी कर रही है प्रयास
उस ख़ारे सागर को
'मीठा' बनाने का।-
शांत आकर्षित
और सुंदर
एवं वक़्त आने
पर डरा देने वाला
खुद के रुतबे से सबको-
स्त्री को समझना है...
....दिल से....
समुद्र की गहराई को नाप लेना...!!!-